Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{47}
२. आवश्यकसूत्र और गुणस्थान :
___ आगम साहित्य में आवश्यकसूत्र का महत्वपूर्ण स्थान है। नंदीसूत्र में तो अंगबाह्य आगमों में सर्वप्रथम इसे ही स्थान दिया गया है और अंगबाह्य आगमों का आवश्यक तथा आवश्यक व्यतिरेक इसी रूप में वर्गीकरण किया गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि नंदीसूत्र में षट् आवश्यकों को स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में परिगणित किया गया है, किन्तु वर्तमान में इसे एक ग्रन्थ ही माना जाता है और षडावश्यकों को इसके छः अध्याय कहे जाते हैं। दिगम्बर परम्परा में भी इसे अंगबाह्य ग्रन्थों में स्वीकृत किया गया है। वर्तमान में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा इसे मूलसूत्रों के धर्म में स्थान देती हैं। किन्तु स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय इसे मूल ग्रन्थों में परिगणित न करके एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही मानते हैं । इस ग्रन्थ में सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान-ऐसे छः विभाग है। इस ग्रन्थ का सम्बन्ध श्रमण एवं गृहस्थ उपासकों के आवश्यक कर्तव्यों से है। यद्यपि यह ग्रन्थ अपने आकार में संक्षिप्त ही है, किन्तु जैनाचार्यों ने इस पर विस्तृत व्याख्या सहित सृजन किया है। जितनी व्याख्याएँ और टीकाएँ इस ग्रन्थ पर मिलती हैं, उतनी अन्य ग्रन्थों पर नहीं। यहाँ हमारा विवेच्य विषय तो गुणस्थान की अवधारणा है, इसीलिए इसकी विषयवस्तु में विस्तृत चर्चा न करते हुए यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि इस ग्रन्थ में क्या कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा या संकेत उपलब्ध है या नहीं ? ____ अर्द्धमागधी आगम साहित्य में आवश्यकसूत्र का महत्वपूर्ण स्थान है। सर्वाधिक टीकाएँ और व्याख्याएँ इसी आगम पर मिलती है। इसमें साधकों के लिए करणीय षडावश्यकों का विवेचन है। इसके प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन के निग्रंथ प्रवचन स्थिरीकरणसूत्र में मिथ्यात्व, असंयत और संयत जैसे शब्द उपलब्ध होते हैं, किन्तु यहाँ इन शब्दों का प्रयोग गुणस्थानों के सन्दर्भ में न होकर उनके अपने सामान्य अर्थ में ही हुआ है। इसके एकविध आदि अतिचार प्रतिक्रमणसूत्र में भी चौदह प्रकार के भूतग्राम अर्थात् जीवों का ही उल्लेख हुआ है। वहाँ भी चौदह गुणस्थानों का कोई उल्लेख नहीं है। इस प्रकार आवश्यकसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी चर्चा का प्रायः अभाव ही है। ३. दशवैकालिकसूत्र और गुणस्थान :__आगम साहित्य में दशवैकालिकसूत्र एक सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में अंगबाह्य आगमों के रूप में इसका उल्लेख उपलब्ध होता है। नंदीसूत्र में भी अंगबाह्य आगमों के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में इसे प्रथम स्थान दिया गया है। इस ग्रन्थ के स्वाध्याय के लिए काल-अकाल का विचार नहीं किया जाता है। विकाल में भी इसका अध्ययन किया जा सकता है, इसीलिए इसे वैकालिक या उत्कालिक कहते हैं। दूसरे इस ग्रन्थ में दस अध्याय होने के कारण इसे दशवैकालिक-ऐसा नाम दिया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में दस अध्ययन और दो चूलिकाएं हैं । इसमें मुनि आचार का संक्षिप्त किन्तु सर्वांगीण विवेचन उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ के रचयिता आर्य शय्यंभवसूरि माने गए हैं। यह कहा जाता है कि आर्य शय्यंभवसूरि ने, अपने पुत्र मनक की अल्पायु जानकर उसके अध्ययन के लिए इस ग्रन्थ की रचना की थी। धर्म के सामान्य स्वरूप की चर्चा के पश्चात्, इस आगम ग्रन्थ में मुनि आचार का ही विस्तार से विवेचन किया गया है। इसमें मुनि के लिए क्या करणीय है और क्या अकरणीय है, इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसकी दोनों चूलिकाएँ हितशिक्षाओं के संकलन के रूप में है। यहाँ हमारा मूलभूत प्रयोजन तो आगम साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा की खोज करना है, अतः इसकी विषयवस्तु के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा न कर केवल यह देखने का यत्न करेंगे कि इस ग्रन्थ में क्या कहीं गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई संकेत उपलब्ध हैं ।
___ दशवैकालिकसूत्र में मुख्यरूप से मुनिआचार का ही वर्णन है। चूंकि यह ग्रन्थ मुनिआचार से सम्बन्धित है, इसीलिए इसमें सम्यग्दृष्टि, संयत, अप्रमत्त, उपशान्त आदि पदों का बहुशः उल्लेख हुआ है, किन्तु वह उल्लेख अपने सामान्य अर्थ में ही है। १०४ नवसुत्ताणि, भाग-५, आवश्यकसूत्र, वाचनाप्रमुख आचार्य तुलसी, जैनविश्वभारती लाडनूं (राज.) सं. २०५७ १०५ वही, दसवेयालियं.
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