Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{57} के स्थान पर अपूर्वकरण शब्द का ही प्रयोग देखा जाता है, जबकि समवायांग और आवश्यकनियुक्ति यहाँ निवृत्तिबादर या निवृत्ति शब्द का ही प्रयोग करती है। इन गाथाओं के आधार पर तो ऐसा लगता है कि नियुक्तिकार के समक्ष चौदह गुणस्थानों की अवधारणा उपस्थित रही होगी, किन्तु उपर्युक्त गाथाएँ नियुक्ति गाथा है या नहीं यह एक विवादास्पद प्रश्न है । डॉ. सागरमल जैन का स्पष्ट रूप से यह कहना कि ये गाथाएँ मूलतः नियुक्ति गाथाएँ नहीं हैं, इन्हें बाद में प्रक्षिप्त किया गया है। अपने तर्क के पक्ष में वे दो प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। प्रथम तो यह कि नियुक्तिसंग्रह में जहाँ ये दो गाथाएँ दी गई है, वहाँ इन्हें मूल गाथाओं में परिगणित नहीं किया गया है, अतः ये गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति की मूल गाथा न होकर अन्य ग्रन्थ से प्रक्षिप्त की गई गाथाएँ हैं। दूसरा उनके सम्बन्ध में सबल तर्क यह है कि आचार्य हरिभद्र ने आठवीं शताब्दी में आवश्यकनियुक्ति पर टीका लिखी, उस टीका में वे स्पष्टरूप से इन्हें संग्रहणी गाथा कहकर उद्धृत करते हैं। इसप्रकार यह सिद्ध होता है कि आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध चौदह गुणस्थानों का उल्लेख करनेवाली गाथा उसकी मूल गाथाएँ नहीं है, अपितु संग्रहणीसूत्र से लेकर उन्हें प्रक्षिप्त किया गया है। फिर भी यह प्रश्न तो अनुत्तरित ही है कि ये गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति में कब प्रक्षिप्त की गई। इतना तो स्पष्ट है कि आचार्य हरिभद्र को उपलब्ध आवश्यकनियुक्ति में ये दोनों गाथाएँ थी। यह भी सम्भव हो सकता है कि नियुक्तिकार के समक्ष भी ये दोनों गाथाएँ रही हो और उन्होंने इन्हें अपने ग्रंथ में अवतरित कर लिया हो। सत्य तो केवलीगम्य है। हाँ, इतना अवश्य है कि नियुक्ति साहित्य में आवश्यकनियुक्ति के इन संदर्भो को छोड़कर गुणस्थान सम्बन्धी कोई विचारणा हमें उपलब्ध नहीं हुई है। मात्र आचारांगनियुक्ति में आध्यात्मिक विकास (कर्म निर्जरा) दस अवस्थाओं का उल्लेख है, जिनमें से कुछ का नाम गुणस्थान सिद्धान्त की चौदह अवस्थाओं से साम्य है।
आचारांग नियुक्ति में आध्यात्मिक विकास की निम्न दस अवस्थाओं का उल्लेख प्राप्त होता है- सम्यक्त्व प्राप्ति, श्रावक, विरत, अनन्त वियोजक, दर्शनमोह क्षपक, उपशामक (कषाय उपशामक) उपशान्त क्षपक, क्षीणमोह और जिन। इन दस अवस्थाओं का उल्लेख आचारांग नियुक्ति के अतिरिक्त षट्खण्डागम के चतुर्थ कृति अनुयोगद्वार की चूलिका में तथा तत्त्वार्थसूत्र में भी मिलता है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए हम उन संदर्भो को यहाँ यथावत् प्रस्तुत कर रहे हैं। आचारांगनियुक्ति में ये गाथाएँ निम्न रूप में हैं -
सम्मत्तुप्पत्ती सावए विरए अणंतकम्मसे। दसण मोहक्खवए उवसामन्ते य उवसंते।। खवए य खीणमोहे जिणे असेढी भवे असंखिज्जा। तब्बिरओ कालो संखिज्जगुणाइ सेढी ए।
।। गाथा २२-२३ ।। षट्खण्डागम में ये गाथाएँ हैं - सम्मतुप्पत्ती वि य सावय विरदे अणंतकम्मसे। दंसणमोहक्खवए कसाय उवसामए य उवसंते।। खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा। तब्विवरीदो कालो संखेज्जगुणा य सेडीओ।।
षट्खण्डागम, कृति अनुयोगद्वार, प्रथम चूलिका गाथा ७-८ तत्त्वार्थसूत्र में इसी से सम्बन्धित सूत्र निम्न रूप से मिलता है -
सम्यग्यदृष्टिश्रावक विरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्त मोहक्षपकक्षीणमोहजिनाःक्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः।। (तत्त्वार्थसूत्र - ६/४७)
इन उल्लेखों के आधार पर डॉ. सागरमल जैन का यह मानना है कि नियुक्तियों के रचनाकाल तक गुणस्थान सिद्धान्त का पूर्णतः विकास नहीं हुआ था। उस काल में आध्यात्मिक विकास की दस गुणश्रेणियों की चर्चा ही प्रचलित थी। जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है, ये गुणश्रेणियाँ गुणस्थान सिद्धान्त के बीज रूप में रही हुई है। इनके आधार पर ही गुणस्थान सिद्धान्त का विकास हुआ हो, इस सम्भावना को पूरी तरह निरस्त नहीं किया जा सकता है, फिर भी यथार्थता क्या रही है, यह तो केवलीगम्य है, क्योंकि परम्परा तो गुणस्थान सिद्धान्त को भी जिन प्रणीत ही मानती है और प्राचीन स्तर के कर्म साहित्य में इसके सन्दर्भ है।
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