Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{79} अग्रिम अधिकार उपयोग अधिकार है। इसके अर्न्तगत कषाय भावों का उल्लेख है । यहाँ कषाय को चेतना का उपयोग कहा गया है। इसमें एक जीव को कौनसी कषाय कितने समय तक उदय में रहती है ? किस गति के जीव को कौनसी कषाय उदय में आती है ? एक भव में कषायों का उदय कितनी बार होता है और कितने समय तक होता है ? एक भव में उदित कषाय कितने भव तक रह सकती है ? आदि की चर्चा है।
अग्रिम चतुःस्थान अधिकार के अन्तर्गत चारों कषायों के अनन्तानुबन्धी आदि चार-चार भेदों की चर्चा है। इसमें यह भी चर्चा की गई है कि कौनसे कषाय देशघाती और कौनसा कषाय सर्वघाती है ?
इसके पश्चात् नवें व्यंजन अधिकार में कषायों के पर्यायवाची नामों की चर्चा की गई है। यह चर्चा प्रायः भगवतीसूत्र के समान है। इसके पश्चात् दसवाँ अधिकार दर्शनमोह उपशमन अधिकार है। इसमें दर्शनमोह में जीव कौनसी अवस्था को प्राप्त होता है ? उसका परिणाम कैसा होता है ? इसकी चर्चा है। साथ ही किस जीव में कौन-कौन सी कषाय, लेश्या और वेद होता है? इसकी भी चर्चा की गई है।
प्रस्तुत ग्रन्थ का अग्रिम अधिकार दर्शनमोह क्षपण अधिकार है। इसमें दर्शनमोह के क्षपण का आरंभ किससे होता है ? इसकी चर्चा है । इसमें यह भी बताया गया है कि दर्शनमोह के क्षपण की क्रिया समाप्त होने के पूर्व यदि मनुष्य की मृत्यु हो जाए, तो वह चारों गति में अपने-अपने आयुष्य कर्म के बन्ध अनुसार उत्पन्न हो सकता हैं, किन्तु दर्शनमोह का क्षपण होने पर प्रस्तुत भव के अतिरिक्त अधिक से अधिक तीन भव कर मुक्त हो जाता है।
अगला अधिकार संयमासंयमलब्धि अधिकार है। इस अधिकार के अन्दर मूल गाथा में केवल इतना ही बताया गया है कि साधक इस अवस्था में चारित्रमोह के उपशमन की क्रिया करता है। वस्तुतः यह अवस्था देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के समान है। इसके पश्चात अग्रिम दो अधिकारो में चारित्रमोह के उपशमन और चारित्रमोह के क्षपण की विस्तार से चर्चा की गई है। इन दोनों अधिकारों में विस्तार से यह बताया गया है कि चारित्रमोह कर्म का उपशमन और क्षय किस रूप में होता है ? इन दोनों अधिकारों में साधक चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन और क्षय किस प्रकार से करता है? इसकी चर्चा विस्तृत रूप से उपलब्ध है। इसमें यह भी बताया गया है कि वह किन कर्मप्रकृतियों का किनमें संक्रमण करके उसका उपशम और क्षय करता है। संक्रमण की चर्चा के अतिरिक्त इसमें गुणश्रेणी तथा अपकर्ष-उत्कर्ष कृष्टिकरण आदि की भी विस्तार से चर्चा की गई है। कृष्टिकरण वह प्रक्रिया है जिसमें कर्म वर्गणाओं के स्पर्धकों को इस प्रकार से समायोजित किया जाता है कि उनका क्षय सुविधापूर्ण रूप से किया जाता है। कृष्टि करने वाला साधक पूर्व स्पर्धकों और अपूर्व स्पर्धकों का भेदन करता है, परन्तु कृष्टियों का वेदन नहीं करता। कृष्टियों में साधक नियम से ही कर्मों की स्थिति और अनुभाग का अपवर्तन करता है, अर्थात् उसकी शक्ति को क्षीण करता है। यहाँ यह स्मरण रखनाचाहिए कि गुणस्थानों में आगे-आगे चलने वाले साधक कृष्टियों के माध्यम से कर्मों का अपकर्षण करते हैं, अर्थात् उनकी स्थिति और अनुभाग कम करते हैं, किन्तु ऊपर के गुणस्थान से गिरनेवाले जीव उत्कर्षण के परिणामस्वरूप कर्मों की स्थिति और अनुभाग अधिक करते हैं। अतः चारित्रमोहनीय का क्षपक कृष्टियों के माध्यम से और अपकर्षण करता हुआ आगे बढता हुआ अन्त में चारित्रमोह का क्षय करके क्षीणमोह अवस्था को प्राप्त करता है और अन्त में सर्वज्ञ पद की प्राप्ति कर लेता
गुणस्थान सिद्धान्त में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी के रूप में आठवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास की दो श्रेणियों की चर्चा की गई है। कसायपाहुडसुत्त में भी उपशामक और क्षपक-ऐसी आध्यात्मिक विकास की दो श्रेणियों की चर्चा है, किन्तु जहाँ गुणस्थान सिद्धान्त में यह माना गया है कि सातवें गुणस्थान के अन्त में साधक अपनी योग्यता अनुसार किसी एक श्रेणी से आरोहण करता हुआ अपनी आध्यात्मिक विकास यात्रा करता है, वहाँ कसायपाहुडसुत्त में पहले उपशामक और उपशान्त की और बाद में क्षपक एवं क्षीण की चर्चा है। गुणस्थान सिद्धान्त के अनुसार जो उपशमश्रेणी से यात्रा करता है, वह ग्यारहवें गुणस्थान से पतित होकर सातवें गुणस्थान में आ जाता है। यदि यहाँ भी वह स्थित न रहकर गिरता है,
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