Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{48} दशवैकालिकसूत्र के छठे अध्ययन में उपशान्त पद उपलब्ध होता है। यहाँ यह कहा गया है कि मैथुन की प्रवृत्ति से उपशान्त मुनि का विभूषा से क्या प्रयोजन? (६/६४) किन्तु यहाँ यह उपशान्त पद उपशान्तमोह गुणस्थान का वाचक नहीं है। इसी क्रम में आठवें अध्ययन की १६ वीं गाथा में अप्रमत्त शब्द का उल्लेख है। वहाँ कहा गया है कि सर्व इन्द्रियों में समाहित ऐसा अप्रमत्तसंयत, आठ प्रकार के सूक्ष्मों को जानकर, सदैव यतनापूर्वक आचरण करें। इसप्रकार यहाँ अप्रमत्त शब्द गुणस्थान का वाचक प्रतीत नहीं होता है, अपितु अप्रमत्त होकर आचरण करने का ही वाचक है। इसी क्रम में दशवैकालिक सूत्र के दसवें अध्ययन की ७ वी गाथा में सम्यग्दृष्टि और दसवीं गाथा में उपशान्त पद आया है, किन्तु ये दोनों पद ही भिक्षु के विशेषण के रूप में प्रयोग हुए हैं, गुणस्थान के रूप में नहीं। इसप्रकार दशवैकालिकसूत्र में सम्यग्दृष्टि, संयत, अप्रमत्तसंयत, उपशान्त जैसे पदों की उपस्थिति तो देखी जाती है, परन्तु वह गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से प्रतीत नहीं होती है। ४. उत्तराध्ययनसूत्र और गुणस्थान :
श्वेताम्बर जैन परम्परा में उत्तराध्ययनसूत्र को मूल आगम के रूप में स्वीकार किया गया है। इस सन्दर्भ में स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराएँ एकमत हैं। हमारी दृष्टि में इसे मूल आगम कहने का मुख्य प्रयोजन यह है कि यह ग्रन्थ जैनधर्म-साधना का आधारभूत ग्रन्थ है। वस्तुतः हिन्दू परम्परा में जो स्थान गीता का है, बौद्ध परम्परा में वो स्थान धम्मपद का है, जैन परम्परा में वही स्थान उत्तराध्ययनसूत्र का रहा है। उत्तराध्ययन नियुक्ति के अनुसार इस ग्रन्थ का प्रणयन पूर्व साहित्य के आधार पर हुआ है। इसकी विषयवस्तु में मुख्यरूप से जिनभाषित, ऋषिभाषित एवं आचार्यभाषित तत्त्व है। उत्तराध्ययनसूत्र को एक आकर ग्रन्थ माना गया है। इसमें जैनतत्वमीमांसा, जैनआचारमीमांसा का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। सम्पूर्ण सूत्र छत्तीस अध्ययनों में विभक्त है। इसके २८वें और ३६ वें अध्ययन में जीवादिक तत्वों का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त प्रथम
आदि कुछ अध्यायों में मुनि के विनय गुण आदि का विवेचन है। समाचारी नामक २६ वें अध्ययन में मुनि आचार का निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त कुछ अध्ययन उपदेशात्मक और कथात्मक है। विशेषरूप से आठवें अध्ययन में कपिल की वैराग्य भावना का विवरण है, तो नवें नमिप्रवज्या नामक अध्ययन में, नमि और इन्द्र के संवाद के रूप में, एकत्व भावना और वैराग्य का सुन्दर चित्रण हुआ है। इसीप्रकार इस ग्रन्थ का २३ वाँ अध्ययन केशी-गौतम के संवाद के रूप में है। इसमें जहाँ एक ओर महावीर
और पार्श्व की परम्परा के अन्तर को स्पष्ट किया गया है, तो दूसरी ओर उनमें समन्वय का प्रयास किया गया है। इसके अतिरिक्त इस अध्याय में अनेक आध्यात्मिक प्रश्नों का सुन्दर समाधान है। इसके कुछ अध्याय उपदेशात्मक है और साधक को आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा देते हैं। प्रस्तुत प्रसंग में हमारा मुख्य लक्ष्य तो उत्तराध्ययनसूत्र में गुणस्थान सम्बन्धी विवरणों की खोज करना है, अतः अग्रिम पृष्ठों में हम इसी दृष्टि से कुछ प्रयास करेंगे।
___ उत्तराध्ययनसूत्र की गणना मूलसूत्र में कहीं की जाती है। यह ग्रन्थ भी मुख्यरूप से आचार और उपदेशपरक ही है। इस ग्रन्थ में भी विरत, संयत, प्रमत्त, अप्रमत्त, उपशान्त आदि शब्दों का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु यहाँ ये शब्द अपने सामान्य अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं। उदाहरण के रूप में उत्तराध्ययनसूत्र के चतुर्थ असंस्कृत नामक अध्ययन में प्रमत्त और अप्रमत्त शब्दों का अनेक बार प्रयोग हुआ है, किन्तु इन स्थलों पर मुनि को यह शिक्षा दी गई है कि वह प्रमत्त न बनें, अपितु अप्रमत्त बनकर अपनी साधना करें। इसी क्रम में छठे, दसवें और सत्रहवें अध्ययन में मुनि के लिए अप्रमत्त जीवन जीने का निर्देश दिया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र के नमिप्रवज्या नामक नवें अध्ययन में नमिराजर्षि का वर्णन है। इसकी प्रथम गाथा में ही नमिराजर्षि के विशेषण के रूप में, उपशान्त शब्द का प्रयोग हुआ है। उसमें कहा गया है कि उनके मोह के उपशान्त होने पर उन्हें जाति-स्मरण ज्ञान हुआ और उस ज्ञान से प्रेरित होकर पुत्र को राज्य देकर उन्होंने संयम ग्रहण किया। यहाँ पर उपशान्तमोह शब्द का प्रयोग नमिराजर्षि के दीक्षित होने की पूर्व अवस्था के रूप में हुआ है। उत्तराध्ययनसूत्र के बीसवें महानिग्रंथीय नामक अध्ययन में सम्पराय शब्द का
१०६ वही, उत्तरज्झयणाई.
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