Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{30)
४. समवायांग और गुणस्थान :____ अंग-आगमों में चतुर्थ स्थान समवायांगसूत्र का है। शैली की अपेक्षा से स्थानांग और समवायांग दोनों ही कोष-शैली के ग्रन्थ हैं । जहाँ स्थानांगसूत्र में एक से लेकर दस तक की संख्यावाले विषयों का संकलन किया गया है, वहीं समवायांगसूत्र में एक से लेकर सौ, हजार, लाख, करोड़ आदि संख्याओं को लेकर भी विषयवस्तु को संकलित करने का प्रयत्न किया गया है। संख्या की अपेक्षा से तो समवायांग का क्षेत्र व्यापक है, किन्तु यदि हम विषय सामग्री को देखें तो स्थानांग का आकार समवायांग की अपेक्षा अधिक वृहत् है। दोनों में कुछ विषयवस्तु तो समान है और कुछ भिन्न समवायांग की एक विशेषता यह भी है कि इसके अन्त में परिशिष्ट के रूप में चौबीस तीर्थंकरों सम्बन्धी और आगम साहित्य की विषयवस्तु सम्बन्धी परिशिष्ट भी उपलब्ध होते हैं। स्थानांगसूत्र में जहाँ केवल दस दशाओं सम्बन्धी और उनके अध्यायों सम्बन्धी ही उल्लेख मिलते हैं, वहीं समवायांग में बारह ही अंग-आगमों की विषयवस्तु का विस्तृत परिचय दिया गया है। प्रस्तुत गवेषणा का प्रतिपाद्य विषय तो गुणस्थान सिद्धान्त है, अतः हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि इस अंग-आगम में गुणस्थान सम्बन्धी उल्लेख है तो किस रूप में है और कितना है ? ज्ञातव्य है कि स्थानांगसूत्र केवल दस तक की संख्या का विचार करता है इसीलिए उसमें चौदह गुणस्थानों सम्बन्धी विचारणा उपलब्ध होने की सम्भावना अल्प ही थी, किन्तु समवायांगसूत्र विशेष विवरण की दृष्टि से भी एक से एक सौ उनसाठ (१५८) तक की संख्या का स्पष्ट चित्रण करता है इसीलिए इसमें गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा की सम्भावना अधिक प्रतीत होती है। अब समवायांगसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में उपलब्ध है, इसकी चर्चा करेगें।
समवायांगसूत्र में गुणस्थान शब्द तो नहीं मिलता है, फिर भी इसमें कर्मविशुद्धि की अपेक्षा से चौदह जीवस्थानों के रूप में चौदह गुणस्थानों का उल्लेख मिलता है। समवायांग में सम्पूर्ण चौदह गुणस्थानों के नाम का उल्लेख करनेवाला यह सूत्र निम्न है"कम्मविसोहीमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णता, तं जहामिच्छदिट्ठी (मिथ्यादृष्टि), सासायणसम्मदिट्ठी (सास्वादनसम्यग्दृष्टि), सम्मामिच्छदिट्ठी (सम्यग्मिथ्यादृष्टि), अविरयसम्मदिट्ठी (अविरतसम्यग्दृष्टि), विरयाविरए (विरताविरत), पमत्तसंजए (प्रमत्तसंयत), अपमत्तसंजए (अप्रमत्तसंयत), नियट्टिबायरे (निवृत्तिबादरसंपराय), अनियट्टिबायरे (अनिवृत्तिबादरसंपराय), सुहुमसंपराए (सूक्ष्मसंपराय), उवसमए वा खवए वा उवसंतमोहे (उपशान्तमोह), खीणमोहे (क्षीणमोह), सजोगी केवली (सयोगी केवली), अजोगी केवली (अयोगीकेवली)"। इस प्रकार समवायांग में चौदह गुणस्थानों के नामों का स्पष्ट उल्लेख हुआ है, किन्तु यहाँ उन्हें गुणस्थान न कहकर कर्मविशुद्धिमार्गणा प्रत्युत चौदह जीवस्थान कहा है। समवायांगसूत्र के सन्दर्भ में विद्वानों की यह मान्यता है कि यह सूत्र देवर्द्धिगणि की वल्लभी वाचना के समय अन्तिम रूप से सुव्यवस्थित हुआ है और इसमें महावीर के पश्चात् से लेकर वल्लभी वाचना के पूर्व तक की अनेक अवधारणाएं संकलित कर दी गई। इसी आधार पर डॉ. सागरमल जैन ने यह माना है कि यह अंश प्रक्षिप्त है। इस सम्बन्ध में उनके अपने तर्क हैं, किन्तु यहाँ हम इस विवाद में उतरना आवश्यक नहीं समझते हैं। इतना अवश्य है कि आगम साहित्य में यही एक मात्र ऐसा स्थल है जहाँ सर्वप्रथम जीवस्थान के नाम से इन चौदह गुणस्थानों के नाम का उल्लेख हुआ है। यह चौदह जीवस्थान निश्चय ही गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित हैं, इसमें भी कोई शंका की स्थिति नहीं है। इससे एक बात स्पष्ट रूप से सिद्ध होती है कि वल्लभी वाचना के पूर्व गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा उपस्थित रही है, चाहे उसे गुणस्थान से अभिहित नहीं किया गया हो। गुणस्थानों की इस अवधारणा को गुणस्थान नाम मिलने से पूर्व जीवस्थान, जीवसमास आदि नामों से अभिहित किया जाता रहा है, क्योंकि समवायांग के अतिरिक्त षट्खण्डागम में और जीवसमास नाम के ग्रन्थ में भी इन चौदह अवस्थाओं को सर्वप्रथम जीवसमास के नाम से अभिहित किया गया है। आवश्यक नियुक्ति में भी जो दो गाथाएं है, उनमें भी गुणस्थान-ऐसे नाम का उल्लेख नहीं है। इन गाथाओं के सन्दर्भ में डॉ. सागरमल जैन का मानना है कि संग्रहणीसूत्र से आवश्यक नियुक्ति में प्रक्षिप्त की गई है। यहाँ हम बिना किसी विवाद में उलझे, केवल इतना कह
८३ वही, समवायांग.
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