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पञ्चसंग्रह
'आहारसरीरिंदियपजत्ती आणपाणभासमणो ।
चत्तारि पंच छप्पि य एइंदिय-वियल-सण्णीणं ॥४४॥ जिस प्रकार गृह, घट, वस्त्रादिक अचेतन द्रव्य पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकारके होते हैं, उसी प्रकार जीव भी पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकारके होते हैं । पूर्ण जीवोंको पर्याप्त और अपूर्ण जीवोंको अपर्याप्त जानना चाहिए। आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनपान (श्वासोच्छास) भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ होती हैं। इनमेंसे एकेन्द्रियोंके आदिकी चार, विकलेन्द्रियोंके आदिकी पांच और संज्ञी पंचेन्द्रियोंके छहों पयोप्तियां होती हैं ।।४३-४४॥
इस प्रकार पर्याप्तिप्ररूपणा समाप्त हुई। प्राणप्ररूपणा
बाहिरपाणेहिं जहा तहेव अब्भंतरेहि पाणेहिं । जीवंति जेहिं जीवा पाणा ते होंति बोहव्वा ॥४॥ पंचेविंदियपाणा मण-वचि-काएण तिण्णि बलपाणा ।
आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण दस होति ॥४६॥ जिस प्रकार बाह्य प्राणोंके द्वारा जीव जीते हैं. उसी प्रकार जिन आभ्यन्तर प्राणों के द्वारा जीव जीते हैं, वे प्राण कहलाते हैं, ऐसा जानना चाहिए । स्पर्शन, रसन, घ्राण, नर ये पाँच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल और कायबल ये तीन बल, आयु और आनपान ये दश प्राण होते हैं ॥४५-४६।।
विशेषार्थ-पौद्गलिक द्रव्येन्द्रियोंके व्यापारको बाह्यप्राण कहते हैं । बाह्यप्राणके निमित्तभूत ज्ञानावरण और अन्तरायकर्मके क्षयोपशमादिसे विजृम्भित चेतनव्यापारको आभ्यन्तर प्राण कहते हैं । इन दोनों ही प्रकारके प्राणोंके सद्भावमें जीवमें जीवितपनेका और वियोग होने पर मरणपनेका व्यवहार होता है, इसलिए इन्हें प्राण कहते हैं । ये प्राण पूर्वोक्त पर्याप्तियोंके कार्यरूप हैं और पर्याप्ति कारणरूप हैं। क्योंकि गृहीत पद्ल स्कन्ध-विशेषोंको इन्द्रिय, वचन ओदिरूप परिणमावनेकी शक्तिकी पूर्णताको पर्याप्ति और वचन-व्यापार आदिकी कारणभूत शक्तिको, तथा वचन आदिको प्राण कहते हैं।
'उस्सासो पजत्ते सव्वेसिं काय-इंदियाऊणि । वचि। पजत्ततसाणं चित्तवलं सण्णिपजते ॥४७॥ दस सण्णीणं पाणा सेसेगूणंतिमस्स वे ऊणा । पज्जत्तेसु दरेसु अ सत्त दुए सेसगेगूणा ॥४८॥ पुण्णेसु सण्णि सव्वे मणरहिया होंति ते दु इयरम्मि । सोदक्खिघाणजिब्भारहिया सेसिगिदिभासूणा ॥४॥ पंचक्ख-दुए पाणा मण वचि उस्सास ऊणिया सव्वे ।
कण्णक्खिगंधरसणारहिया सेसेसु ते अपुण्णेसु ॥५०॥ बीइंदियादिपजत्ते तु ४।६।७।८।६।१० । सण्णिपंचिंदियादि-अपजत्तेसु ७।७।६।५।४।३। 1. सं० पंचसं० १, १२८ । 2.१, १२३ । ३.१, १२४ । 4. १, १२५-१२६ । १. गो० जी० ११८ । २. ध० भा० १ पृ० २५६ गा० १४१ । गो० जी० १२८। ३.गो.
जी० १२१ । ४. गो० जी० १३२ । * ब -याण ब -विचि ।
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