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उन तपोलक्ष्मीपति के बहुत से शिष्य हुए। उन में संकड़ों से छोटे श्रीसोमदेव पण्डित हुए जो तप, शास्त्र और यश के स्थान थे । ये भगवान् सोमदेव समस्त विद्याओं के दर्पण, यशोधरचरित के रचयिता, स्याद्वादोपनिषत् के कर्ता तथा अन्य सुभाषितों के भी रचयिता है। समस्त महासामन्तों के मस्तकों की पुष्पमालाबों से जिन के चरण सुगन्धित हैं, जिन का यशकमल सम्पूर्ण विद्वज्जनों के कानों का आभूषण है और सभी राजाओं के मस्तक जिन के चरणकमलों से सुशोभित होते हैं।
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उपर्युक्त दानपत्र के वर्णन से स्पष्ट है कि सोमदेव के गुरु नेमिदेव थे, जो महान् दार्शनिक थे, उन के अनेक शिष्यों में से सोमदेव भी एक थे, जो महान् पण्डित और निविध शास्त्रों के ज्ञाता थे। उन की अपूर्व प्रतिभा से सम्राट् तथा सामन्त सभी प्रभादिन से और उन के भरथे
मुलवादानपत्र में सोमदेव के दादागुरु यशोदेव को गोड़संघ का आचार्य बसलाया गया है, किन्तु यशस्तिलक की प्रशस्त्रि के अनुसार वे देवसंघतिलक या देवसंघ के आचार्य थे । इस प्रकार मुलवादानपत्र एवं यशस्तिलक को प्रशस्ति के वर्णनों में कुछ भेद दृष्टिगोचर होता है। इस सन्देह का निवारण करते हुए श्री नाथूराम प्रेमी लिखते हैं कि गोड़संघ अभी तक बिलकुल ही अश्रुतपूर्व है। जिस प्रकार आदिपुराण के कर्ता जिनसेन का सेनसंध या सेनान्वय पंचस्तूपान्वय भी कहलाता था, शायद उसी तरह खोमदेव का देवसंघ भी गौड़संघ कहलाता हो । सम्भवतः यह नाम देश के कारण पड़ा हो । जैसे द्रविड़ देश का द्रविड़संघ, पुन्नाट देश का पुन्नाटसंघ, मथुरा का माथुरसंघ उसी प्रकार गौड़ देश का यह गौसंघ होगा : गौड़ बंगाल का पुराना नाम हूँ | जस गौड़ से तो शायद इस संघ का कोई सम्बन्ध न हो, परन्तु दक्षिण में हो गोल, गोल्ल या गौड़ देश रहा है, जिस का उल्लेख श्रवणबेल गोल के अनेक लेखों ( १२४, १३०, १३८, ४९१ ) में मिलता है । गोल्लाचार्य नाम के एक माचार्य भी हुए हैं जो वीरनन्दि के शिष्य थे और पहले गोल्ल देश के राजा थे नहीं होता इसलिए गोल और गौड़ को एक मानने में कोई आपत्ति नहीं
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है ।
र लन्ड में भेद
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सोमदेव को शिष्य परम्परा के सम्बन्ध में भी कुछ ज्ञात नहीं है । यशस्तिलक
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के टीकाकार श्रुतसागर सूरि ने वादिराज और वादीभ सिंह को सोमदेव का शिष्य बतलाया है । किन्तु टीकाकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि सोमदेव ने किस ग्रन्थ में वादिराज और वादीभसिह को अपना शिष्य बलाया हूं। उपर्युक्त विद्वानों को सोमदेव का शिष्य मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि यशस्तिलक एवं नीतिवाक्यामृत
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१. मुलमादानपत्र, लोक १५-१८ ।
२. पं० नाथूराम प्रेमी जैन साहित्य और इतिहास पृ०
३. यशस्तिलल को टीका
२, पृ० २६
समादिराजोऽपि श्राचार्यस्य शिष्यः ॥ वादीभ सोऽपि मदीयशिष्यः, श्रीवादिराजोऽषि मदीशिभ्यः इत्युक्तत्वाच्च ।
नीतिवाक्यामृत में राजनीति