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स्थविर आवलिका
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आर्य मंगु के पीछे आर्य (१७) नन्दिल क्षमण हुए। ये ज्ञान, दर्शन, (चारित्र) तप-अनशन आदि और विनय-ज्ञान-विनय आदि में नित्य काल उद्युक्त रहते थे-सदा काल अप्रमादी रहते थे। ये प्रसन्न मन वाले थे-राग-द्वेष रहित अन्तःकरण वाले थे। ऐसे आर्य नन्दिल क्षमण को मैं वन्दना करता हूँ।
वड्डाउ वायगवंसो, जसवंसो अज्जानागहत्थीणं। वागरण-करण-भंगिय, कम्मप्पयडी-पहाणाणं॥३४॥
इनके पीछे आर्य (१८) नागहस्ति हुए। ये व्याकरण-संस्कृत प्राकृत भाषा के शब्द व्याकरण अथवा प्रश्नव्याकरण की वाचना देने वालों में प्रधान थे। करण (चार पिण्डविशुद्धि, पाँच समिति, बारह भावना, बारह भिक्षु-प्रतिमा, पाँच इन्द्रिय निरोध, पच्चीस प्रतिलेखना, तीन गुप्ति, चार अभिग्रह, इन करण सत्तरी के सत्तर बोलों) की वाचना देने वालों में भी प्रधान थे। तथा भंग-बहुल ऐसी कर्म-प्रकृति की वाचना देने वालों में भी प्रधान थे। ऐसे श्री नागहस्ति वाचकजी का वाचकवंशवाचक पुरुषों की सन्तति, वृद्धि प्राप्त करे (कभी विच्छिन्न नहीं हो) तथा इनका वाचक वंश यशवंश हो-इस वाचक वंश में होने वाले वाचक यशस्वी बनें।
जच्चंजण-धाउ-सम-प्पहाण, मुद्दिय-कुवलय-निहाणं। वड्वउ वायगवंसो, रेवइनक्खत्तनामाणं॥ ३५॥
इनके पश्चात् (१९) श्री रेवतिनक्षत्र हुए। इनके शरीर की प्रभा जातिवान अंजन धातु के समान कृष्ण थी। (इसका अर्थ यह नहीं कि ये अत्यन्त काले थे, परन्तु) पकी हुई दाख या नीलोत्पल कमल अथवा कुवलय मणि के समान श्याम थे। इनका वाचकवंश बढ़े।
अयलपुरा णिक्खंते, कालिय-सुय-आणुओगिए धीरे। बंभंद्दीवग-सीहे, वायग-पय-मुत्तमं पत्ते॥३६॥
इनके पीछे (२०) श्री सिंह हुए। ये अचलपुर से निकले थे (अचलपुर नगर के निवासी थे) और वहीं से दीक्षित हुए थे। ये कालिक श्रुत के अनुपयोग में (व्याख्या करने में) नियुक्त किये गये थे अथवा कालिक श्रुत के व्याख्याता थे और धीर थे। ये ब्रह्मदीपिक शाखा में उत्पन्न हुए थे। गण गच्छभेद महागिरि तथा सुहस्ति के काल में आरंभ हो गया था।
इन्होंने अपने युग की अपेक्षा, उत्तम वाचक पद प्राप्त किया था। जेसिं इमो अणुओगो, पयरइ अज्जावि अड्ड-भरहम्मि। बहु-नयर-निग्गय-जसे, ते वंदे खंदिलायरिए॥ ३७॥ इनके पश्चात् आचार्य (२१) स्कंदिल हुए। आज भी अर्द्ध भारत में जिनका यह अनुयोग
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