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श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - आवश्यक के भेद
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*********** ****** ** ***** श्रुत-विभाग का कोई श्रुत, गणधर रचित भी हो सकता है, जैसे निरयावलिका आदि तथा कोई श्रुत, संकलन आदि की दृष्टि से (शब्द से तो गणधर रचित ही होता है) पूर्वधर श्रुत-स्थविर रचित भी हो सकता है, जैसे-प्रज्ञापना आदि, उस श्रुत-विभाग को 'अंगबाह्य' कहते हैं अथवा जिस श्रुत-विभाग का कोई श्रुत, सर्व क्षेत्र और सर्व काल में नियम से रचित होता है, जैसे-आवश्यक आदि और कोई नियत नहीं होता, जैसे पइन्ना विशेष आदि, उस श्रुत विभाग को 'अंगबाह्य' कहते हैं। १. आवश्यक-नियमित कर्त्तव्य, २. आवश्यक व्यतिरिक्त-आवश्यक से भिन्न।
आवश्यक के भेद से किं तं आवस्सयं? आवस्सयं छव्विह पण्णत्तं तं जहा-सामाइयं, चउवीसत्थओ, वंदणयं, पडिक्कमणं, काउस्सग्गो, पच्चक्खाणं; से त्तं आवस्सयं।
प्रश्न - वह आवश्यक क्या है?
उत्तर - आवश्यक के छह भेद हैं। यथा-१. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३. वंदन, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग और ६. प्रत्याख्यान। यह आवश्यक है। _ विवेचन - जो क्रियानुष्ठान साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ को, सूर्य उदय से पहले और सूर्य अस्त के पश्चात् लगभग एक मुहूर्त काल में प्रतिदिन और प्रतिरात्रि उभयकाल करना आवश्यक है, उसे 'आवश्यक' कहते हैं और उसके प्रतिपादक उस क्रियानुष्ठान के साथ बोले जाने वाले पाठ-समूह रूप सूत्र को आवश्यक सूत्र' कहते हैं। .. भेद - आवश्यक के छह भेद हैं। यथा
१. सामायिक-समभाव की प्राप्ति; मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और सावध-अशुभयोग से विरति रूप क्रिया; ज्ञान, दर्शन, चारित्र में प्रवृत्ति रूप क्रिया।
२. चतुर्विंशतिस्तव-चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति, अर्हन्त देव के यथार्थ असाधारण गुणों का
कीर्तन।
३. वंदना-विनय, क्षमादि गुणवान् गुरु की प्रतिपत्ति।
४. प्रतिक्रमण-पाप से पीछे लौटना, जो सम्यक्श्रद्धा नहीं की, विपरीत प्ररूपणा की, नहीं करने योग्य कार्य किये, करने योग्य कार्य नहीं किये, उसका पश्चात्ताप करना और प्रत्याख्यान लेकर भंग किया हो उस स्खलना को दूर करना।।
५. कायोत्सर्ग-काया की ममता छोड़ना, व्रतों के अतिचार रूप व्रण की चिकित्सा करना। ६. प्रत्याख्यान-तप करना, त्याग में वृद्धि करना, व्रतों के अतिचार रूप घावों को पूरना।
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