________________
श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - आचारांग
२३५
++++
+++
++++++++++++++********************************************************
अध्ययन को पक्का करने के लिए कहते हैं और शिष्य अध्ययन को स्थिर परिचित करता है, उसे 'समुद्देश' कहते हैं तथा यह कार्य जिस काल में होता है, उसे 'समुद्देशन काल' कहते हैं। . उद्देशन और समुद्देशन प्रायः जिस सूत्र में उद्देशक होते हैं, वहाँ उद्देशक की संख्या के अनुसार होते हैं जहाँ उद्देशक रहित अध्ययन होते हैं, वहाँ अध्ययन की संख्या के अनुसार होते हैं। जहाँ वर्गबद्ध अध्ययन होते हैं, वहाँ वर्गानुसार होते हैं। आचारांग में ८५ उद्देशक हैं, अतएव ८५ ही उद्देशन समुद्देशन होते हैं। इस कारण इसमें उद्देशन समुद्देशनकाल ८५-८५ ही हैं।
अट्ठारस पयसहस्साइं पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा।
अर्थ - आचारांग में अठारह हजार पद हैं। अक्षर संख्यात हैं, किंतु उनमें अनन्त अर्थ व अनन्त आशय समाये हुए हैं। इसमें कुछ त्रसों व असीमित स्थावरों का वर्णन प्राप्त है।
विवेचन - जिससे अर्थ निकले ऐसे शब्द को-'अक्षर' या अक्षर समूह को-'पद' कहते हैं। आचारांग के पहले श्रुतस्कंध के पहले इतने पद थे। ... संख्यात अक्षर हैं, क्योंकि पद संख्यात ही हैं। वर्तमान में दोनों श्रुतस्कंधों का संयुक्त परिमाण २५५४ श्लोक जितना है। एक श्लोक के बत्तीस अक्षर होते हैं। - गम दो प्रकार के होते हैं-१. सूत्रगम और २. अर्थगम। सूत्र का ज्ञान होना 'सूत्रगम' है और अर्थों का ज्ञान होना 'अर्थगम' है। सूत्र में सूत्रगम तो संख्येय ही होते हैं, परन्तु अर्थगम अनन्त होते हैं, क्योंकि जिनकी अतिशयं बुद्धि होती हैं, वे अर्थगम अनंत तक जान लेते हैं अर्थात् अनन्त द्रव्य और उनके अनन्त गुण जान लेते हैं। · पर्यव अनन्त हैं, अर्थागम से अनन्त द्रव्यों और अनन्त गुणों के अनन्त. पर्यव जान लेते हैं।
परित्त त्रस हैं-दो इंद्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय वाले जीव, जो दुःख से त्रस्त होकर इधर-उधर गमनागमन करते हैं, वे 'त्रस' हैं। त्रस चारों गति के मिलाकर भी असंख्य ही हैं। अतएव असंख्य त्रस जीवों का वर्णन है। - अनन्त स्थावर हैं-एक स्पर्शन इन्द्रिय वाले जीव, जो दुःख मुक्ति के लिए गमन आगमन नहीं कर सकते, वे 'स्थावर' हैं। वनस्पति आश्रित स्थावर अनन्त हैं। अतएव अनन्त स्थावरों का वर्णन है।
- सासयकडणिबद्धणिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति, पण्णविजंति परूविजंति दंसिर्जति णिदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति। - अर्थ - शाश्वत, कृत, निबद्ध और निकाचित है। जिन प्रणीत भावों का प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, : निदर्शन और उपदर्शन किया गया है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org