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श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - स्थानांग
ठाणे णं टंका, कूडा, सेला, सिहरिणो, पब्भारा, कुंडाई, गुहाओ, आगरा, दहा, ईओ, आघविज्जति ।
अर्थ - स्थानांग में टंक, कूट, शैल, शिखरी, प्राग्भार, कुंड, गुफा, आकर, द्रह और नदी को निरूपण किया गया है।
विवेचन - १. टंक - ऊपर से नीचे तक समान परिधि वाले दधिमुख आदि पर्वत, २. कूटू - पर्वत पर रहे हुए कूट आकृति वाले सिद्धायतन आदि कूट, ३. शैल शिखर रहित निषध आदि पर्वत, ४. शिखरी - शिखर युक्त वैताढ्य आदि पर्वत, ५. प्राग्भार जिनका ऊपरी भाग कुछ झुका हुआ य हाथी के कुंभ के समान बाहर निकला हुआ है, ऐसे पर्वत, ६. कुंड - नदी जहाँ जाकर गिरती है और निकलती है, ऐसे गंगाकुंड आदि, ७. गुफा - जहाँ से अन्य खंड में जाया जाता है, ऐसे खंडप्रपात आदि पर्वतीय छिद्र मार्ग, ८. आकर - स्वर्ण आदि के उत्पत्ति स्थान, ९. द्रह - नदी का उद्गम स्थान, महापद्म द्रह आदि, १०. नदियाँ - शीता आदि कही जाती है। इनके नाम, स्थान, लम्बाई, चौड़ाई, गहराई ऊँचाई, अधिपति आदि बताये जाते हैं ।
ठाणे णं एगाइयाए एगुत्तरियाए वुड्डीए दसद्वाणगविवड्डियाणं भावाणं परूवणा आघविज्जइ ।
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अर्थ- स्थानांग में एक से लेकर एक-एक की वृद्धि से दस तक की संख्या में जीव आदि भावों का कथन किया जाता है अथवा एक से लेकर एक-एक की वृद्धि से दस तक की संख्या वाले भावों का कथन किया जाता है ।
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ठाणे णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ णिज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ। अर्थ- स्थानांग में परित्त वाचनाएँ, संख्येय अनुयोग द्वार, संख्येय वेष्ट, संख्येय श्लोक, संख्येय नियुक्तियाँ, संख्येय संग्रहणियाँ और संख्येय प्रतिपत्तियाँ हैं ।
से णं अंगट्टयाए तइए अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा एगवीसं उद्देसणकाला, एगवीसं समुद्देसणकाला ।
अर्थ - स्थानांग अंगों में तीसरा अंग है। इसका एक ही श्रुतस्कंध है। दस अध्ययन हैं, इक्कीस उद्देशनकाल और इक्कीस समुद्देशनकाल है।
विवेचन - पहले अध्ययन में एक की संख्या में या एक संख्या वाले पदार्थों का निरूपण किया . है। जैसे- 'आत्मा एक है।' दूसरे अध्ययन में दो की संख्या में या दो संख्या वाले पदार्थों का निरूपण किया है। जैसे लोक में दो तत्त्व हैं - १. जीव और २. अजीव । इसी प्रकार तीसरे अध्ययन में तीन इन्द्र
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