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श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - अन्तकृतदसा
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अर्थ - संख्येय सहस्र पद हैं। संख्येय (वर्तमान में ८१२ श्लोक परिमाण) अक्षर हैं। अनन्त गम हैं, अनन्त पर्यव हैं, परित्त त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। ___ सासयकडणिबद्धणिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविजंति परूविज्जंति, दंसिज्जंति, णिदंसिज्जंति, उवदंसिज्जंति।
'अर्थ - शाश्वत और कृत पदार्थों के विषय निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञप्त किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं।
से एवं आया, एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ। से त्तं उवासगदसाओ॥५१॥
अर्थ - वह आत्मा इस प्रकार ज्ञाता और इसी प्रकार विज्ञाता होता है। उपासकदसा में चरण करण की प्ररूपणा है यह उपासकदसा का स्वरूप है। अब सूत्रकार आठवें अंग का परिचय देते हैं।
८. अन्तकृतदसा - से किं तं अंतगडदसाओ? अंतगडदसासु णं अंतगडाणं णगराई, उज्जाणाई, चेझ्याई, वणसंडाई, समोसरणाई, रायाणो, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइयपरलोइया इडिविसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वज्जाओ, परिआया, सुयपरिग्गहा, तवोवहाणाई, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाइं, पाओवगमणाई, अंतकिरियाओ, आघविज्जंति।
प्रश्न - वह अन्तकृतदसा क्या है? - उत्तर - (अन्तकृत का अर्थ है-जिन्होंने कर्म या संसार का अन्त किया, ऐसे साधुओं का जिसमें चरित्र हो, उसे 'अन्तकृतदसा' कहते हैं)।
अन्तकृतदसा में संसार का अन्त करने वाले मुनियों के नगर, नगर के उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, नगर में धर्माचार्य का पदार्पण, सेवा में राजा, माता पिता आदि का गमन, धर्माचार्य की धर्मकथा, नायक की इहलौकिक पारलौकिक विशिष्ट ऋद्धि, भोगों का परित्याग, दीक्षा ग्रहण, दीक्षा पर्याय, शास्त्रभ्यास, तपाराधना, संलेखना, भक्त प्रत्याख्यान, पादपोपगमन और अंतक्रिया आदि कहा जाता है।
अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा, संखिज्जा अणुओगदारा, संखेज्जा वेढा,
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