Book Title: Nandi Sutra
Author(s): Parasmuni
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 273
________________ २५६ **************************************** नन्दी सूत्र अर्थ- प्रश्नव्याकरण पढ़ने वाला इस प्रकार ज्ञाता और इसी प्रकार विज्ञाता होता है। प्रश्नव्याकरण में चरण करण की प्ररूपणा है । यह प्रश्नव्याकरण का स्वरूप है । अब सूत्रकार ग्यारहवें अंग का परिचय देते हैं । ************************************* ११. विपाक श्रुत से किं तं विवागसुयं ? विवागसुए णं सुकडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविज्जइ, तत्थ णं दस दुहविवागा दस सुहविवागा । प्रश्न- विपाकश्रुत किसे कहते हैं ? उत्तर विपाक का अर्थ है - शुभ-अशुभ कर्मों की स्थिति पकने पर उनका उदय में आया हुआ परिणाम (फल)। जिस श्रुत में ऐसा परिणाम बताया हो, उसे 'विपाकश्रुत' कहते हैं । विपाकश्रुत में सुकृत और दुष्कृत कर्मों के फलस्वरूप होने वाला परिणाम कहा जाता है। इसमें दस दुःख विपाक हैं और दस सुख विपाक हैं। से किं तं दुहविवागा ? दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं णगराई, उज्जाणाई, वणसंडाईं, चेइयाई, समोसरणाई, रायाणो, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइयपरलोइया इड्डिविसेसा णिरयगमणाई संसारभवपवंचा, दुहपरंपराओ, दुकुलपच्चायाइओ, दुल्लहबोहियत्तं आघविज्जइ । से त्तं दुहविवागा । - Jain Education International प्रश्न - वह दुःख विपाक क्या है ? उत्तर - दुःख विपाक में हिंसादि दुष्कृत कर्मों के फलस्वरूप दुःख परिणाम पाने वाले दस जीवों के नगर, नगर के उद्यान, वनखण्ड, चैत्य, धर्माचार्य का पदार्पण, सेवामें राजा, माता-पिता आदि का गमन, धर्माचार्य की धर्मकथा, नायक की इहलौकिकं पारलौकिक विशिष्ट ऋद्धि, नरकगमन=पहली से सातवीं तक में जो जहाँ जन्मा, संसार भव प्रपंच- एकेन्द्रिय के असंख्य, विकलेन्द्रिय के संख्य तथा पंचेन्द्रिय के जो अनेक जन्म किये, करेंगे वे, दुःखपरंपरा - एक के बाद एक नरक, तिर्यंच, निगोदादि के जो दुःख अनुभव करेंगे वह, दुःकुल में प्रत्याजाति = हलके आचार-विचार प्रतिष्ठा वाले कुल में जन्म, दुर्लभ बोधित्व-धर्म की शीघ्र अप्राप्ति आदि कहा जाता है। यह दुःखविपाक का स्वरूप है। से किं तं सुहविवागा ? सुहविवागेसु णं सुहविवागाणं णगराई, उज्जाणाई, वणसंडाई चेइयाई, समोसरणाइं, रायाणो, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइयपरलोइया इडिविसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वज्जाओ, परियागा, सुयपरिग्गहा, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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