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श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - विपाक श्रुत
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तवोवहाणाइं, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाइं, पाओवगमणाई, देवलोगगमणाई सुहपरंपराओ, सुकुलपच्चायाईओ, पुणबोहिलाभा, अंतकिरियाओ, आघविजंति।
प्रश्न - वह सुख विपाक क्या है?
उत्तर - सुख विपाक में धर्मदान आदि सुकृत कर्मों के फलस्वरूप सुखद परिणाम पाने वाले दस जीवों के नगर, नगर के उद्यान, वनखण्ड, चैत्य, धर्माचार्य का पदार्पण, सेवामें राजा, माता पिता आदि का गमन, धर्माचार्य की धर्मकथा, नायक की इहलौकिक पारलौकिक विशिष्ट ऋद्धि, भोगों का परित्याग, दीक्षा ग्रहण, दीक्षा पर्याय, शास्त्राभ्यास, तपाराधन, संलेखना, भक्त प्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोक प्राप्ति, सुखपरंपरा-पहले देवलोक इत्यादि, एक के बाद एक उत्तरोत्तर वर्धमान सुख की परंपरा, पुनः बोधिलाभ और अंतक्रिया आदि कहा जाता है।
विवागसुयस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ णिज्जुत्तीओ, संखिज्जाओ संगहणीओ, संखिज्जाओ पडिवत्तीओ।
अर्थ - विपाक श्रुत में परित्त वाचनाएं, संख्येय अनुयोगद्वार, संख्येय वेष्ट, संख्येय श्लोक, संख्येय नियुक्तियाँ, संख्येय संग्रहणियाँ और संख्येय प्रतिपत्तियाँ हैं। .. से णं अंगट्ठयाए इक्कारसमे अंगे, दो सुयक्खंधा वीसं अज्झयणा, वीसं उद्देसणकाला, वीसं समुद्देसणकाला।
- अर्थ - यह अंगों में ग्यारहवाँ अंग हैं। इसके दो श्रुतस्कंध हैं। बीस अध्ययन हैं। १० . उद्देशनकाल और १० समुद्देशनकाल हैं।
- संखिज्जाइं पयसहस्साइं पयग्गेणं संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा।
अर्थ - संख्येय सहस्र पद हैं। संख्येय (वर्तमान में १२५० श्लोक परिमाण) अक्षर हैं। अनन्त गम हैं, अनन्त पर्यव हैं, परित्त त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं।
सासयकडणिबद्धणिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति, पण्णविजंति, परूविजंति, दंसिज्जंति, णिदंसिजति, उवदंसिजंति। - अर्थ - शाश्वत और कृत पदार्थों के विषय निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञप्त किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं।
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