Book Title: Nandi Sutra
Author(s): Parasmuni
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 288
________________ श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - उपसंहार ..... २७१ सासयकडणिबद्धणिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति, पण्णविज्जंति, परूविजंति, दंसिजंति, णिदंसिज्जंति, उवदंसिज्जंति। अर्थ - शाश्वत और कृत पदार्थों के विषय निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञप्त किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। से एवं आया, एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरणकरणपरूवणा आघविजंति। से त्तं दिट्ठिवाए॥५६॥ अर्थ - दृष्टिवाद को पढ़ने वाला इस प्रकार ज्ञाता और इसी प्रकार विज्ञाता होता है। दृष्टिवाद में चरण करण की प्ररूपणा है। यह वह दृष्टिवाद है। उपसंहार अब सूत्रकार संक्षेप में बारह अंग वाले गणिपिटक का विषय बतलाते हैं। इच्चेइयंमि दुवालसंगे गणिपिडगे अणंता भावा, अणंता अभावा, अणंता हेऊ, अणंता अहेऊ, अणंता कारणा, अणंता अकारणा, अणंता जीवा, अणंता अजीवा, अणंता भवसिद्धिया, अणंता अभवसिद्धिया, अणंता सिद्धा, अणंता असिद्धा पण्णत्ता। भावार्थ - ऐसे इस बारह अंगों वाले गणिपिटक में- १. अनन्त भाव कहे हैं-जीवादि अनन्त सद्भूत पदार्थों की अस्ति कही है और उनका अनन्त स्वभाव कहा है। २. 'अनन्त अभाव' कहे हैंगधे के सींग आदि अनन्त असद्भूत पदार्थ की नास्ति कही है तथा सद्भूत पदार्थों के अनन्त विभाव या परस्वभाव कहे हैं। ३. 'अनन्त हेतु' कहे हैं-वस्तु के अनन्त धर्मों एवं स्वभावों को बतलाने (सिद्ध करने वाले अनन्त हेतु कहे हैं तथा मिथ्यावाद को खण्डित करने वाले अनन्त तर्क कहे हैं। ४. अनन्त अहेतु कहे हैं-वस्तु के स्वभाव को बतलाने में असमर्थ अनन्त अहेतु कहे हैं तथा सत्यवाद को खण्डित करने वाले अनन्त कुतर्क कहे हैं। ५. अनन्त कारण कहे हैं-द्रव्यों के गुण तथा पर्यायों के परिवर्तन में कारणभूत अनन्त स्वकारण और अनन्त सहकारी कारण कहे हैं। ६. अनन्त अकारण कहे हैं-पदार्थों की पर्यायों के परिवर्तन में अकारणभूत अनन्त स्वकारण और अनन्त सहकारी कारण कहे हैं। ७. अनन्त जीव कहे हैं-स्थावर और सिद्ध के आश्रित अनन्त जीव कहे हैं। ८. अनन्त अजीव कहे हैं-पुद्गल और काल आश्रित अनन्त अजीव कहे हैं। ९. अनन्त भवसिद्धिक कहे हैं-अनन्त मोक्षगामी जीव कहे हैं। १०. अनन्त अभवसिद्धिक कहे हैं-अनन्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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