Book Title: Nandi Sutra
Author(s): Parasmuni
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 285
________________ ********* २६८ नन्दी सूत्र ************************* सिद्धा, सिद्धिपहो जह देसिओ, जच्चिरं च कालं, पाओवगया जे जहिं जत्तियाई भत्ताई अणसणाए छेइत्ता अंतगडे, मुणिवरुत्तमे, तिमिरओघविप्पमुक्के, मुक्खसुहमणुत्तरं च पत्ते, एवमण्णे य.एवमाइभावा मूलपढमाणुओगे कहिया। से त्तं मूलपढमाणुओगे। प्रश्न - वह मूल प्रथम अनुयोग क्या है? उत्तर - धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले धर्म के 'मूल' तीर्थंकरों ने जिस भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया, उस प्रथम भव से लेकर यावत् मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त का, पूर्वगत से सम्बन्ध रखने वाले चरित्र जिसमें हो, उसे 'मूल प्रथम अनुयोग' कहते हैं। मूल प्रथम अनुयोग में अर्हन्त भगवन्तों के, उन्होंने जिस भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया, उस प्रथम भव से लेकर जिस भव में तीर्थंकर गोत्र बाँधा, वहाँ तक के १. 'पूर्वभव' कहे जाते हैं। २. 'देवगमन' कहे जाते हैं-तीर्थंकर गोत्र जिस भव में बाँधा वहाँ से काल करके जिस देवलोक में, जिस विमान में, जिस रूप में उत्पन्न हुए, वह कहा जाता है। यदि श्रेणिक जैसे कोई जीव, पहले नरक आयु बन्ध जाने से नरक में उत्पन्न हुए हों, तो वह नरक, वहाँ का नरकावास आदि बताया जाता है। ३. 'आयु' कही जाती है-वहाँ देवलोक में या नरक में जितनी आयु प्राप्त की, वह कही जाती है। ४. 'च्यवन' कहा जाता है-वहाँ देवलोक से जब च्यवे या नरक से निकले, वहाँ से जिस नगर आदि में जिस राजा की जिस महारानी की कुक्षि में आये, वह कहा जाता है। ५. 'जन्म' कहा जाता है-जन्म के मास, पक्ष, तिथि, नक्षत्र आदि कहे जाते हैं। ६. 'अभिषेक' कहा जाता हैजन्म के पश्चात् ५६ दिशाकुमारियों के द्वारा जो अशुचि निवारण होता है और ६४ इन्द्रों द्वारा मेरु पर्वत पर अभिषेक होता है, वह कहा जाता है। ७. राज्यवर श्री कही जाती है-जितने वर्ष राज्यपद भोगा, वह बताया जाता है। यदि किसी ने पहले मांडलिक पद पाकर फिर चक्रवर्ती पद भी पाया हो, तो वह भी बताया जाता है, यदि कोई कुमारपद में ही रहे हों, तो वह बताया जाता है। ८. प्रव्रज्या कही जाती है-जब, जहाँ, जैसे उत्सव के साथ दीक्षित हुए, वह कहा जाता है। ९. उग्र तप कहा जाता है-दीक्षित होकर जैसा कठोर तप किया, जितने काल तक किया, जो अभिग्रह प्रतिमाएँ आदि की, जहाँ अनार्य देश आदि में विहार किया, जैसे शय्या, आसन आदि काम में लिये, वह कहा जाता है या तप न किया और अल्पकाल ही छद्मस्थ रहे हों तो वह बताया जाता है। १०. केवलज्ञान उत्पाद बताया जाता है। जब, जहाँ, जिस अवस्था में, जितने वर्ष से केवलज्ञान हुआ और देवताओं ने उस कल्याणक को जैसा मनाया, वह बताया है। ११. तीर्थ प्रवर्तन कहा आता है। १२. जितने शिष्य हुए। १३. जितने गण-गच्छ हुए, वे कहे जाते हैं। १४. जितने और जो गणधर हुए। १५. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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