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श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - अनुत्तरौपपातिक
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णगराइं, उज्जाणाई, चेइयाइं वणसंडाइं समोसरणाइं, रायाणो, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइयपरलोइया इड्डिविसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वज्जाओ, परिआया, सुयपरिग्गहा, तवोवहाणाई, पडिमाओ, उवसग्गा, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई अणुत्तरोववाइय उववत्ती, सुकुलपच्चायाईओ, पुणबोहिलाभा, अंतकिरियाओ, आघविजंति।
प्रश्न - वह अनुत्तरौपपातिक दसा क्या है?
उत्तर - (अनुत्तरौपपातिक का अर्थ है-जिससे बढ़कर श्रेष्ठ एवं प्रधान अन्य कोई देवलोक नहीं है, ऐसे सर्वोत्तम देवलोक में जो उत्पन्न हुए हैं। ऐसे साधुओं का जिसमें चरित्र हो, उसे 'अनुत्तर औपपातिक दसा' कहते हैं।
- अनुत्तर औपपातिकदशा में अनुत्तर औपपातिकों के नगर, नगर के उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, नगर में धर्माचार्य का पर्दापण, सेवा में राजा माता-पिता आदि का गमन, धर्माचार्य की धर्मकथा, नायक की इहलौकिक पारलौकिक विशिष्ट ऋद्धि, भोगों का परित्याग, दीक्षा ग्रहण, दीक्षा पर्याय, शास्त्राभ्यास, तपाराधना, प्रतिमा-साधु की १२ भिक्षु प्रतिमा, उपसर्ग-देवादि कष्ट, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोगमन, अनुत्तरौपपातिक उपपत्ति-पांच अनुत्तर विमानों में जिनका जन्म हुआ, उच्च मनुष्य कुल में जन्म, पुनः बोधि लाभ और अंत क्रिया आदि कहा जाता है।
अणुत्तरोववाइयदसासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ णिज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ।
_ अर्थ - अनुत्तरौपपातिकदसा में परित्त वाचनाएं, संख्येय अनुयोग द्वार, संख्येय वेष्ट, संख्येय श्लोक, संख्येय नियुक्तियाँ, संख्येय संग्रहणियाँ और संख्येय प्रतिपत्तियाँ हैं।
से णं अंगट्ठयाए णवमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, तिण्णि वग्गा, तिण्णि उद्देसणकाला, तिण्णि समुहेसणकाला। .. भावार्थ - यह अंगों में नौवां अंग है। इसका एक श्रुतस्कंध है। तीन वर्ग हैं। (तेतीस अध्ययन हैं। पहले तीसरे वर्ग में दस-दस-२० और दूसरे वर्ग में १३ कुल ३३)। तीन उद्देशनकाल हैं, तीन समुद्देशनकाल हैं। - संखेज्जाइं पयसहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा।
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