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नन्दी सूत्र
अर्थ - ३६ सहस्र पद हैं। संख्यात अक्षर हैं (वर्तमान में २१०० श्लोक परिमाण अक्षर हैं), अनन्त गम हैं। अनन्त पर्यव हैं। परित्त त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं।
सासयकडणिबद्धणिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति, पण्णविजंति, परूविजंति, दंसिजति, णिदंसिजंति, उवदंसिर्जति।
अर्थ - शाश्वत और कृत पदार्थों के विषय में निबद्ध और निकाचित जिन प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञप्त किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं, उपदर्शित किये जाते हैं।
से एवं आया, एवंणाया, एवं विण्णाया, एवं चरणकरणरपरूवणा आघविज्जइ। सेत्तं सूयगडे॥४६॥
भावार्थ - क्रिया की अपेक्षा सूत्रकृतांग पढ़ने वाला, जैसा सूत्रकृतांग का स्वरूप है, उसी स्वरूप वाला-साक्षात् मूर्तिमान् सूत्रकृतांग बन जाता है। सूत्रकृतांग में दूषित किये गये अजैनमतों को छोड़कर, सिद्ध किये गये जैनमत को स्वीकार कर लेता है। ज्ञान की अपेक्षा सूत्रकृतांग में जैसा दर्शनों का ज्ञान विज्ञान बताया है, उसका ज्ञाता एवं विज्ञाता बन जाता है।
इस प्रकार सूत्रकृतांग में चरण करण की प्ररूपणा कही जाती है। यह सूत्रकृतांग है। अब सूत्रकार तीसरे अंग का परिचय देते हैं।
३. स्थानांग से किं ठाणे? ठाणे णं जीवा ठाविजंति, अजीवा ठाविनंति, जीवाजीवा ठाविनंति, ससमए ठाविजइ, परसमए ठाविज्जइ, ससमयपरसमए ठाविजइ, लोए ठाविज्जइ, अलोए ठाविजइ, लोयालोए ठाविजइ।
प्रश्न - वह स्थानांग क्या है ? . उत्तर - जिस सूत्र में जीव आदि तत्त्वों का संख्यामय प्रतिपादन द्वारा स्थापन किया जाता है, ऐसे उस स्थापना के स्थानभूत सूत्र को 'स्थानांग'.क्रहते हैं।
विषय - स्थानांग में कहीं - १. जीवों की स्थापना की जाती है, कहीं २. अजीवों की स्थापना की जाती है, कहीं ३. जीव अजीव दोनों की स्थापना की जाती है, कहीं ४. स्व-समय की स्थापना की जाती है, कहीं ५. पर-समय की स्थापना की जाती है, कहीं ६. स्व-समय और पर-समय दोनों की स्थापना की जाती है, कहीं ७. लोक की स्थापना की जाती है, कहीं ८. अलोक की स्थापना की जाती है, कहीं ९. लोक-अलोक दोनों की स्थापना की जाती है।
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