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नन्दी सूत्र
विवेचन - 'शाश्वत' पदार्थ-धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य, 'कृत' पदार्थ-पुद्गलास्तिकाय के घट आदि पदार्थ अथवा 'शाश्वत' द्रव्य गुण और 'कृत' = पर्याय के विषय में जिनेश्वर देव जो भाव 'निबद्ध' करते हैं-नाम भेद स्वरूप आदि द्वारा सामान्य रूप से बतलाते हैं तथा 'निकाचित' करते हैंनियुक्ति, संग्रहणी, हेतु, उदाहरण, आदि द्वारा अत्यन्त दृढ़ बतलाते हैं, उन्हीं जिन प्रज्ञप्त भावों का इसमें कथन किया जाता है, प्रज्ञापना की जाती है, प्ररूपणा की जाती है, दर्शन कराया जाता है, निदर्शन किया जाता है, उपदर्शन किया जाता है।
से एवं आया, एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ। से त्तं आयारे॥४५॥
अर्थ - वह आत्मा, इस प्रकार ज्ञाता और इसी प्रकार विज्ञाता होता है। आचारांग में चरण करण की प्ररूपणा है। यह आचारांग का स्वरूप है।
__ विवेचन - फल-१. क्रिया की अपेक्षा, वह आचारांग पढ़ने वाला, जैसा अभी आचारांग का स्वरूप कहा है, उसी स्वरूप वाला, साक्षात् मूर्तिमान आचारांग बन जाता है। आचारांग में ज्ञानादि आचारों के आसेवन की जो विधि बताई है, वह उस विधिपूर्वक ज्ञान आदि पाँचों आचार की आराधना करने वाला बन जाता है। २. ज्ञान की अपेक्षा आचारांग में जैसा ज्ञान-विज्ञान बताया है, उनका ज्ञाता और विज्ञाता बन जाता है। नाम, भेद, स्वरूप आदि का जानकार और नियुक्ति, संग्रहणी, हेतु, उदाहरण आदि का विशेष जानकार बन जाता है।
प्रश्न - श्रुतज्ञान सुनने या पढ़ने का पहला फल 'ज्ञान' है और उसके बाद दूसरा फल 'क्रिया' है। इस प्रकार 'ज्ञान' पहले और 'क्रिया' पीछे है, तो वहाँ पहले 'क्रिया' और पीछे 'ज्ञान' क्यों?
उत्तर - ज्ञान की अपेक्षा (ज्ञानयुक्त) "क्रिया' श्रेष्ठ है। अतएव सूत्रकार ने उस 'क्रिया की श्रेष्ठता' बताने के लिए यहाँ श्रुतज्ञान सुनने या पढ़ने का ‘क्रिया फल' पहले बताया है।
इस प्रकार आचारांग में चरण करण की प्ररूपणा कही जाती है। अब सूत्रकार दूसरे अंग का परिचय देते हैं।
२. सूत्रकृतांग से किं तं सूयगडे? सूयगडे णं लोए सूइज्जइ, अलोए सूइज्जइ, लोयालोए सूइज्जइ, जीवा सूइज्जति, अजीवा सूइज्जति, जीवाजीवा सूइज्जति, ससमए सूइज्जइ, परसमए सूइज्जइ, ससमयपरसमए सूइज्जइ।
प्रश्न - वह सूत्रकृत अंग क्या है?
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