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श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - श्रुत की अनादिता
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सव्वजीवा णं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो, णिच्चुग्घाडिओ। . अर्थ - सभी जीवों को पर्यवाक्षर का अनन्तवाँ भाग नित्य खुला रहता है।
विवेचन - श्रुत की अनादिता-सभी जीवों को-जिन्हें ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय का उत्कृष्ट उदय है, जिसके कारण जो पूर्वोक्त तीनों प्रकार की संज्ञा से रहित हैं और स्त्यानगर्द्धि निद्रा में हैं-ऐसे निगोद जीवों को भी अक्षर का (केवलज्ञान का) या श्रुतज्ञान का अनन्तवाँ भाग नित्य (अनादिकाल से) उघड़ा हुआ-खुला रहता है।
जइ पुण सोऽवि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा।
अर्थ - यदि वह भी ढक जाये तो जीव, अजीव हो जाये। . विवेचन - तर्क-क्योंकि यदि ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के उत्कृष्ट उदय से, उनमें वह अक्षर ज्ञान का अनन्तवाँ भाग भी आवृत्त हो जाये (ढक जाये) तो जीव, अजीवत्व को प्राप्त हो जाये। चैतन्य स्वभाव ही नष्ट हो जाने से, अचेतन-जड़ हो जाये। परन्तु ऐसा न तो हुआ, न होता है
और न होगा ही; क्योंकि तब तो सभी द्रव्य अपना-अपना स्वभाव सर्वथा छोड़कर अन्य द्रव्य रूप हो जायेंगे, जो न कहीं देखा गया है, न स्वीकृत किया जा सकता है।
"सुटुवि मेहसमुदए, होइ पभा चंदसूराणं।"
अर्थ - घने से घने मेघों के अच्छी तरह चारों ओर छा जाने पर भी सूर्य-चन्द्र का प्रकाश तो रहता ही है।
विवेचन - दृष्टांत-जैसे घने से घने मेघों के समुदाय से आवृत्त हो जाने पर भी सूर्य-चन्द्र की प्रभा रहती है-पूर्णिमा के चन्द्र की मध्यरात्रि को और सूर्य की मध्यदिन को चन्द्र और सूर्य के अस्तित्व को बतलाने वाली .मन्द प्रभा नियम से रहती है। घने से घने मेघ भी सूर्य और चन्द्र की प्रभा को सर्वथा आवृत्त करने में समर्थ नहीं है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्मों के अनन्त पटलों द्वारा आत्मा के एक-एक करके सभी प्रदेश, अनन्त अनन्तवार आवेष्टित परिवेष्टित हो जाने पर भी, उनके द्वारा जीव के चैतन्य स्वभाव का एकांत नाश नहीं हो सकता। अतएव सिद्ध हुआ कि जीव को (केवलज्ञान या) श्रुतज्ञान का अनन्तवाँ भाग नित्य उघड़ा हुआ रहने से श्रुत अनादि है।
- श्रुत के समान मति को भी अनादि समझना चाहिए, क्योंकि जहाँ श्रुतज्ञान है, वहाँ नियम से मतिज्ञान है।
सेत्तं साइयं सपज्जवसियं, सेत्तं अणाइयं अपज्जवसियं॥४२॥ • अर्थ - यह सादि सपर्यवसित और अनादि अपर्यवसित है।
अब सूत्रकार, श्रुतज्ञान के ग्यारहवें और बारहवें भेद का स्वरूप बतलाते हैं
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