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श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - सादि सपर्यवसितादि
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२. प्ररूपणा करना - स्वरूप आदि बतलाना, जैसे-जीव का स्वरूप निश्चय से चेतना है, व्यवहार से पर्याप्ति, प्राण, योग आदि का धारण करना है।
३. दर्शन करना - उपमान देकर बतलाना, जैसे जिस प्रकार सूर्य स्व-पर प्रकाशक है, वैसे जीव भी स्व-पर प्रकाशक है।
४. निदर्शन करना - हेतु दृष्टान्त देकर स्पष्ट करना, जैसे-यद्यपि आत्मा अमूर्त है, फिर भी उसका ज्ञान गुण अनुभवगम्य होने से आत्म-प्रतीति का विषय है। जैसे-वायु अदृश्य होने पर भी उसका स्पर्श गुण अनुभवगम्य होने से वायु प्रतीति का विषय है।
५. उपदर्शन करना - उपनय निगमन से स्थापना करना, जैसे-आत्मा का भी ज्ञानगुण प्रत्यक्ष है, अतएव जीव तत्त्व अवश्यमेव मानना चाहिए अथवा उपदर्शन का अर्थ है-सकल नय आदि से तत्त्वों का व्यवस्थापन करना। - क्षायोपशमिक लब्धि की अपेक्षा सम्यक्श्रुत अनादि अपर्यवसित है, क्योंकि लब्धि संख्य, असंख्य काल तक बनी रहती है, उसका उपयोग के समान जब तब आरंभ और व्यवच्छेद नहीं होता। . . . इस प्रकार सूत्रकार ने अब तक मात्र सम्यक्श्रुत की अपेक्षा श्रुत के सादि सपर्यवसित और अनादि अपर्यवसित-ये चार भेद बताये। अब सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत दोनों की अपेक्षा श्रुत के ये चार भेद, भंग सहित बतलाते हैं।
अहवा भवसिद्धियस्स सुयं साइयं सपज्जवसियं च, अभवसिद्धियस्स सुयं अणाइयं अपज्जवसियं च।
अथवा भवसिद्धिक की अपेक्षा श्रुत, सादि सपर्यवसित है तथा अभवसिद्धिक की अपेक्षा श्रुत अनादि अपर्यवसित है।
विवेचन - १. भवसिद्धिक - मोक्षगामी, सम्यग्दृष्टि जीव का सम्यक्श्रुत सादि सपर्यवसित है, क्योंकि उसके आचारांग आदि सम्यक्श्रुत का, सम्यक्त्व प्राप्ति के समय आरंभ होता है और पुनः मिथ्यात्व अथवा सर्वज्ञत्व प्राप्ति के समय व्यवच्छेद होता है।
इसी प्रकार भवसिद्धिक सादि मिथ्यादृष्टि जीव का मिथ्याश्रुत भी सादि सपर्यवसित है, क्योंकि जिस मिथ्यादृष्टि ने एक या अनेक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर उसका वमन करके पुन: मिथ्यादर्शन पाया है, उसका मिथ्याश्रुत अनादि नहीं रहता। मध्य में सम्यक्त्व काल में व्यवच्छिन्न रहने से उसका मिथ्याश्रुत सादि हो जाता है तथा वह भवसिद्धिक मिथ्यादृष्टि अवश्य पुनः सम्यक्त्व और केवलज्ञान पायेगा, अत: उसका मिथ्याश्रुत अपर्यवसित नहीं रहेगा-व्यवच्छिन्न हो जायेगा।
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