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नन्दी सूत्र
विवेचन अर्हन्त भगवन्तों के उपदेशों का अनुसरण करके अनगार भगवन्त जिन ग्रन्थों की रचना करते हैं, उन्हें 'प्रकीर्णक' कहते हैं अथवा अर्हन्त भगवन्तों के उपदेशों का अनुसरण करके अनगार भगवन्त, धर्मकथा के समय प्रवचन कुशलता से ग्रन्थ पद्धत्यात्मक जो भाषण देते हैं, उसे 'प्रकीर्णक' कहते हैं अथवा अर्हन्त भगवन्तों के निमित्त आदि से अथवा जातिस्मरणादि से अपने पूर्वभव आदि को जान कर अनगार भगवन्त, जिन आत्म चरित्रों की रचना करते हैं, उसे 'प्रकीर्णक' कहते हैं।
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उत्कृष्ट श्रमण संख्या की अपेक्षा - अर्हन्त भगवन्त श्री ऋषभदेव स्वामी (जो आदि तीर्थंकर थे) के ८४ सहस्र प्रकीर्णक ग्रन्थ थे, क्योंकि उनकी विद्यमानता में उनके शासन में एक समय में उत्कृष्ट ८४ सहस्र साधु रहे। मध्यम जिनवरों-दूसरे अजितनाथ से लेकर तेइसवें पार्श्वनाथ तक के बाईस तीर्थंकरों के संख्यात संख्यात प्रकीर्णक ग्रन्थ थे ( क्योंकि उनकी विद्यमानता में उनके शासन में एक समय में उत्कृष्ट संख्यात - संख्यात साधु रहे ) । भगवान् वर्द्धमान स्वामी के १४ सहस्र प्रकीर्णक थे । (क्योंकि उनकी विद्यमानता में उनके शासन में एक समय में उत्कृष्ट १४ सहस्र साधु रहे ।)
अहवा जस्म जत्तिया सीमा उप्पत्तियाए, वेणइयाए, कम्मयाए, परिणामियाए, चव्विहाए बुद्धीए उववेया, तस्स तत्तियाइं पइण्णगसहस्साइं पत्तेयबुद्धा वि तत्तिया चेव । से त्तं कालियं, से त्तं आवस्सयवइरित्तं । से त्तं अणंगपविट्टं ॥ ४३ ॥
अथवा जिन तीर्थंकरों के जितने शिष्य औत्पत्तिकी, वैनेयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी- ये चार बुद्धि सहित थे, उन तीर्थंकरों के उतने ही प्रकीर्णक ग्रन्थ थे। उनके शासन में प्रत्येक बुद्ध भी उतने ही थे। यह कालिक आवश्यक व्यतिरिक्त हुआ । यह अनंगप्रविष्ट हुआ । .
विशेष- इन प्रकीर्णकों में कुछ कालिक थे और कुछ उत्कालिक थे ।
अब सूत्रकार, श्रुतज्ञान के तेरहवें भेद के स्वरूप का वर्णन करते हैं।
अंगप्रविष्ट के बारह भेद
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से किं तं अंगपविट्ठे ? अंगपविट्टं दुवालसविहं पण्णत्तं तं जहा- १. आयारो २. सूयगडो ३. ठाणं ४. समवाओ ५. विवाहपण्णत्ती ६. णायाधम्मक हाओ ७. उवासगदसाओ ८. अंतगडदसाओ ९. अणुत्तरोववाइयदसाओ १०. पण्हावागरणाई ११. विवागसुयं १२. दिट्टिवाओ ॥ ४४ ॥
प्रश्न - वह अंग प्रविष्ट क्या है ?
उत्तर अंग प्रविष्ट शास्त्र बारह कहे गये हैं । यथा
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१. आचार २ सूत्रकृत ३. स्थान ४.
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