Book Title: Nandi Sutra
Author(s): Parasmuni
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 236
________________ श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - सादि सपर्यवसितादि तत्थ दव्वओ णं सम्मसुयं एगं पुरिसं पडुच्च साइयं सपज्जवसियं, बहवे पुरिसे य पडुच्च अणाइयं अपज्जवसियं । अर्थ १. द्रव्यतः - एक पुरुष की अपेक्षा सम्यक् श्रुत सादि सपर्यवसित है और बहुत - अनन्त पुरुषों की अपेक्षा सम्यक् श्रुत अनादि अपर्यवसित है । विवेचन १. वहाँ द्रव्य से सम्यक् श्रुत एक पुरुष की अपेक्षा सादि सपर्यवसित है ( क्योंकि एक पुरुष की अपेक्षा सम्यक् श्रुत का आरंभ और व्यवच्छेद होता है । वह इस प्रकार है - जब एक पुरुष को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, तव उसके आचारांग आदि सम्यक् श्रुत का आरंभ होता है और पुनः यदि वह मिथ्यात्व में चला जाता है अथवा उसे केवलज्ञान हो जाता है, तो उसके सम्यक् श्रुत का व्यवच्छेद हो जाता है अथवा जब सम्यक्त्वी पुरुष, आचारांग आदि सम्यक् श्रुत सीखता है, तब उसके सम्यक् श्रुतं का आरंभ होता है और जब वह प्रमाद, रोग, मृत्यु आदि कारणों से उसे भूल जाता है, तो उसके उस सीखे हुए सम्यक् श्रुत का व्यवच्छेद हो जाता है) । बहुत पुरुषों की अपेक्षा सम्यक्श्रुत अनादि अपर्यवसित है ( क्योंकि बहुत पुरुषों की अपेक्षा सम्यक् श्रुत का आरंभ और व्यवच्छेद नहीं होता, कारण कि अनादि भूतकाल से विश्व में कई पुरुष सम्यक्त्व, शिक्षण आदि से आचारांग आदि सम्यक्श्रुत प्राप्त करते ही आये हैं और अनन्त भविष्यकाल तक प्राप्त करते ही रहेंगे) । खेत्तओ णं पंच भरहाइं पंचेरवयाइं पडुच्च साइयं सपज्जवसियं, पंच महाविदेहाइं पडुच्च अणाइयं अपज्जवसियं । अर्थ २. क्षेत्रत: - पाँच भरत, पाँच ऐरवत की अपेक्षा सम्यक् श्रुत सादि सपर्यवसित है तथा महाविदेह की अपेक्षा सम्यक्श्रुत अनादि अपर्यवसित है । - विवेचन - २. क्षेत्र से पाँच भरत, पाँच ऐरवत क्षेत्र की अपेक्षा सम्यक् श्रुत सादि सपर्यवसित है, क्योंकि इन क्षेत्रों में सम्यक्श्रुत का आरंभ और व्यवच्छेद होता है, क्योंकि इन क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप कालचक्र सदा घूमता रहता है । जिससे उन-उन आरों में श्रुत की आदि होकर उन-उन आरों में श्रुत का व्यवच्छेद हो जाता है । पाँच महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा सम्यक् श्रुत अनादि अपर्यवसित है, क्योंकि इन क्षेत्रों में सम्यक् श्रुत का आरंभ और व्यवच्छेद नहीं होता, क्योंकि इन क्षेत्रों में उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप कालचक्र भी नहीं घूमता । वहाँ सदा चौथे दुःषम- सुषमा आरे के समान अवस्थित काल रहता है। जिससे श्रुत का शाश्वत प्रवर्तन चालू रहता है। णो कालओ णं उस्सप्पिणिं ओसप्पिणिं च पडुच्च साइयं सपज्जवसियं, उस्सप्पिणिं णो ओसप्पिणिं च पडुच्च अणाइयं अपज्जवसियं । - Jain Education International For Personal & Private Use Only २१९ *** www.jainelibrary.org

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