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गौ-सेवी ब्राह्मणों का दृष्टांत
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उन्होंने भी पूर्वोक्त प्रकार से एक एक दिन बारी-बारी से गाय दुहने का निर्णय किया। पहले दिन बड़ा ब्राह्मण गाय को अपने घर ले गया। उसने सोचा-'यद्यपि मैं आज ही दूध दुहूँगा, कल दूसरा दूध दुहेगा, परन्तु यदि मैं इस गाय को चारा पानी नहीं दूंगा, शीतादि से रक्षा नहीं करूँगा, तो क्रमशः मुझे भी इसका दुष्फल भोगना पड़ेगा। गाय को जो पीड़ा होगी, उसका पाप लगेगा। लोक में भी अवर्णवाद होगा। भविष्य में दक्षिणादि मिलना बन्द हो जायेगा। अतएव मुझे अवश्य ही इसे चारा पानी डालना चाहिए, जिससे इनमें से एक भी दुष्फल न हो। साथ ही यदि मेरे चारे पानी से पुष्ट हुई गाय का दूध अन्य ब्राह्मणों दूहेंगे, तो यह मुझ पर महान् पुण्य अर्जन उपकार होगा। यह सोचकर उसने गाय को पर्याप्त मात्रा में चारा पानी दिया। उसकी पूरी पूरी देखभाल रखकर रक्षा . की। शेष तीन ब्राह्मणों ने भी ऐसा ही सोचा और किया। इससे वे चिरकाल तक उस गाय का दूध पाते रहे। लोक में उनकी गौ-सेवा की बहुत प्रशंसा हई और आगे भी उन्हें दक्षिणा में बहत मिलता रहा।
इसी प्रकार के शिष्यों की एक कथा है। एक गुणसम्पन्न आचार्य के पास कई निजी शिष्य और कई प्रातीच्छक थे। पढ़ने के पहले और पीछे निजी शिष्य सोचते थे-'यद्यपि ये आचार्य दोनों को ही श्रुतज्ञान देते हैं, किन्तु वैयावृत्य हमें भी करना चाहिए। यदि हम वैयावृत्य नहीं करेंगे, तो • आचार्य अशक्त एवं ग्लान हो जाएंगे और संभव है इस निमित्त से काल के पूर्व काल भी कर जायें। इससे हमें श्रुतज्ञान में अन्तराय होगी, संघ में अवर्णवाद होगा, इस गच्छ के अन्य आचार्य भी वाचना नहीं देंगे, अन्य गच्छ में भी वाचना नहीं मिलेगी, अतएव हमें अवश्य ही आचार्यश्री की । वैयावृत्य करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त इन आचार्यश्री ने हमें दीक्षा दी, व्रत का आरोपण किया
और संयम के आचार में निपुण बनाया। इस प्रकार आचार्य हमारे महान् उपकारी हैं। उस उपकार के प्रत्युपकार के लिए भी हमें इनकी वैयावृत्य करनी चाहिए। यदि हमारे वैयावृत्य के द्वारा पुष्ट होकर आचार्यश्री इन प्रातीच्छकों को ज्ञान देंगे, तो उससे हमें भी पुण्य एवं निर्जरा का लाभ होगा। इस प्रकार करने से हमारे गच्छ की शोभा में वृद्धि होगी।' यह सोचकर वे विनयी शिष्य, आचार्यश्री की बहुत वैयावृत्य करते थे।
तथा जो प्रातीच्छक थे, वे भी सोचते थे-'अहो! ये आचार्य कैसे महान् हैं' हम इनके शिष्य नहीं, हमने इनकी कभी सेवा नहीं की, फिर भी हमें श्रुतज्ञान प्रदान करते हैं, ये कितना परिश्रम करते हैं ? दूसरा ऐसा कौन होगा, जो बिना आशा के, बिना उपकार के दूसरों पर उपकार करे? ऐसे महान् आचार्य का हम क्या प्रत्युपकार कर सकते हैं ? तथापि हम जो कुछ भी इनकी वैयावृत्य करेंगे, उससे हमें बहुत लाभ होगा।' इत्यादि सोचकर वे आचार्यश्री की बहुत सेवा करते थे।
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