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नन्दी सूत्र
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स्थिति वाला व्यावहारिक अर्थ अवग्रह होने पर - 'यह गन्ध है।' इस प्रकार गन्ध को जानता है । परन्तु उस समय वह यह नहीं जानता कि- 'यह कैसी गन्ध है ?' उसके पश्चात् वह पुरुष ईहा में प्रवेश करता है कि 'यह कस्तूरी की गंध है या केशर की ?' उसके अनन्तर वह जानता है कि- 'यह अमुक गन्ध है।' यह गंध का अवाय ज्ञान है। इस ज्ञान के रूप में वह अवाय में प्रवेश करता है। उस अवाय के अनन्तर वह गंध का निर्णय ज्ञान, उसे अविच्युति रूप धारणा आत्मगत हो जाता है । उसके पश्चात् वह वासना - रूप धारणा में प्रवेश करता है। उससे वह उस गंध के संस्कार ज्ञान को संख्यात काल तक या असंख्यात काल तक आत्मा में धारण किये रहता है।
अब सूत्रकार 'जिह्वा इंद्रिय विषयक अवग्रह आदि भी इसी क्रम से होते हैं ' - यह बताते हैं ।
से जहाणामए केइ पुरिसे अव्वत्तं रसं आसाइज्जा तेणं रसोत्ति उग्गहिए, णो चेवणं जाणइ के वेस रसेत्ति तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ अमुगे एस रसे, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवग़यं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिज्जं वा कालं असंखिज्जं वा कालं ।
भावार्थ - कल्पना करो कि किसी नाम वाला कोई पुरुष है। उसकी जिह्वा - उपकरण- द्रव्यइंद्रिय में कोई रस पुद्गल प्रवेश करता है। तब वह पहला व्यञ्जन अवग्रह पूरा होने पर एक समय की स्थिति वाले नैश्चयिक अर्थ अवग्रह से अव्यक्त रूप से उस रस को चखता है। फिर असंख्य समय की स्थिति वाला प्रथम व्यावहारिक अर्थ - अवग्रह होने पर - 'यह रस है ' - इस प्रकार रस को जानता है । परंतु उस समय यह नहीं जानता कि- 'यह कैसा रस है ।' उसके पश्चात् वह पुरुष ईहा में प्रवेश करता है। उसके अनन्तर वह जानता है कि 'यह अमुक रस है।' यह रस का अवाय ज्ञान है । इस ज्ञान के रूप में वह अवाय में प्रवेश करता है। इस अवाय के अनन्तर वह रस का निर्णयज्ञान उसे अविच्युति रूप धारणा से आत्मगत हो जाता है। उसके पश्चात् वह वासना रूप धारणा में प्रवेश करता है, उससे वह उस रस के संस्कार ज्ञान को संख्यात काल तक या असंख्यात काल तक आत्मा में धारण किये रहता है।
अब सूत्रकार 'स्पर्शन इन्द्रिय विषयक अवग्रह आदि भी इसी क्रम से होते हैं'- यह बताते हैंसे जहाणामए केइ पुरिसे अव्वत्तं फासं पडिसंवेइज्जा तेणं फासेत्ति उग्गहिए, णो चेव णं जाणइ के वेस फासओत्ति, तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस फासे, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखेज्जं वा कालं असंखेज्जं वा कालं ।
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