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मति ज्ञान का उपसंहार ****************************
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प्रकार से जानते हैं। समय, आवलिका, प्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त आदि कुछ विशेष प्रकार से भी जानते हैं, पर सर्व विशेष प्रकार से देखते नहीं हैं।
भावओ णं आभिणिबोहियणाणी आएसेणं सव्वे भावे जाणइ, ण पासइ। अर्थ - भाव से आभिनिबोधिक ज्ञानी, आदेश से सभी भावों को जानते हैं, देखते नहीं।
विवेचन - जो आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञान जानते हैं, वे उस श्रुत से निश्रित मतिज्ञान से सभी भावों को जातिरूप सामान्य प्रकार से जानते हैं। जैसे-भाव छह हैं-१. औदयिक, २. औपशमिक, ३. क्षायिक, ४. क्षायोपशमिक, ५. पारिणामिक और ६. सान्निपातिक-नहीं दो और अधिक भावों का संगम। कुछ विशेष प्रकार से भी जानते हैं। जैसे औदयिक और क्षायिक भाव आठ कर्मों का होता है। औपशमिक भाव मात्र एक मोहनीय कर्म का ही होता है। क्षायोपशमिक भाव चार घाति कर्मों का होता है। पारिणामिक भाव छहों द्रव्यों में होता है। सान्निपातिक भाव मात्र जीव द्रव्य में ही होता है, क्योंकि अजीव में पारिणामिक के सिवाय कोई भाव नहीं होता। इत्यादि, परन्तु सर्व विशेष प्रकार से नहीं देखते।
जो आभिनिबोधिक ज्ञानी हैं, वे आगमिक श्रुतज्ञान से निश्रित मतिज्ञान द्वारा कुछ क्षेत्र और कालवर्ती ज्ञान से अभिन्न आत्म द्रव्य को और घड़ा कपड़ा आदि कुछ रूपी पुद्गल द्रव्य को ही • जानते हैं तथा आत्म द्रव्य के ज्ञान गुण की कुछ पर्यायों को और घड़ा, कपड़ा आदि के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आद गुण की कुछ पर्यायों को ही जानते हैं।
मतिज्ञानी जानते हैं वह मतिज्ञान से जानते हैं और देखते हैं वह चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शन से देखते हैं। ____ अब सूत्रकार मतिज्ञान का चौथा चूलिका द्वार कहते हैं। उसमें पहले मतिज्ञान के वास्तविक भेद बतलाते हैं- . ...
. मतिज्ञान का उपसंहार उग्गह ईहाऽवाओ य, धारणा एव हुँति चत्तारि। आभिणिबोहियणाणस्स, भेयवत्थू समासेणं॥८२॥
अर्थ - आभिनिबोधिक ज्ञान के संक्षेप में-१. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय और ४. धारणा, ये चार भेद ही होते हैं। ----
विवेचन - प्रश्न - मतिज्ञान के भेद द्वार के आरंभ में श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार भेद पृथक् बताये गये थे और उनसे अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के औत्पातिकी, वैनेयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी-ये चार भेद भिन्न बतलाये थे, तो कुल आठ भेद हुए न?
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