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अहीर-अहीरन का दृष्टांत
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अपने गांव चले। रात हो चुकी थी, अंधकार फैल गया था। मार्ग में डाकुओं ने उन दोनों को लूट लिया। उनकी गाड़ी और बैल छीन लिए। उनके पास पहनने के वस्त्र भी नहीं रहने दिये। गाँव में पहुँचना दूभर हो गया। वहीं भूखे-प्यासे तड़फ कर मर गये। इस प्रकार वे महान् दुःखी हुए।
कुछ शिष्य भी इसी प्रकार के होते हैं। कभी आचार्य दो अथवा अधिक शिष्यों के बीच कोई भूल बताते हैं, तो वे अपना दोष स्वीकार नहीं करते, परन्तु एक दूसरे के सिर मढ़ना आरंभ कर देते हैं। पहला कहता है-'भंते ! मैं तो इसको शुद्ध सिखा रहा हूँ, पर यही अशुद्ध बोल रहा है।' तो दूसरा कहता है कि 'नहीं, भन्ते! मैं तो जो यह सिखाता है, वैसा ही बोलता हूँ, इसलिए मेरा दोष नहीं है. यह खद अशद्ध सिखा रहा है. अतएव इसी का दोष है।'
कुछ शिष्य तो आचार्य पर भी दोष मढ़ने लग जाते हैं। एक शिष्य एक बार व्याख्यान में कोई विपरीत व्याख्या कर गया। आचार्य ने उससे कहा-'यह यों नहीं; यों है' तब शिष्य बोला'उस समय तो आपने मुझे ऐसा ही सिखाया था और अब सुधार का कह रहे हो, सो उसी समय आपको ठीक सिखाना था।' आचार्य ने कहा-'मुनि! मुझे याद है कि मैंने शुद्ध सिखाया, पर तुम स्मृति दोष या अनुपयोग से ऐसा कह रहे हो।' आचार्य की बात सुनते ही शिष्य उद्धत होकर बोला-'मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि आपने मुझे ऐसा ही सिखाया था। क्या मेरे कान मुझे धोखा दे सकते हैं? अब आप यों सच्चाई से बदलकर मुझे भरे व्याख्यान में क्यों अपमानित कर रहे हैं ?' आचार्य अवसर को प्रतिकूल देखकर मौन हो गये।
कुछ शिष्य ऐसे होते हैं-जो अपनी भूल हो, तब तो स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु यदि शिक्षादाता से ही भूल हो गई हो और शिक्षादाता आचार्य, अपनी भूल ध्यान में न आने से शिष्य को कुछ कहने लगे, तो वे थोड़ा भी सहन नहीं करते और आचार्य को ही 'आचार्यत्व कैसे निभाना चाहिए'-इसकी शिक्षा देना आरंभ कर देते हैं। ऐसे शिष्य, श्रुतदान के अपात्र हैं। ज्ञान, मुख्यतया स्वदोष-दर्शन, सहिष्णुता, विनय आदि गुणों की उत्पत्ति के लिए दिया जाता है। यदि ज्ञान की प्राप्ति से ये गुण उत्पन्न नहीं होकर दोष बढ़ते हों, तो ज्ञान देना, सन्निपात वाले को दूध मिश्री देने के समान अहितकारी हो जाता है। ऐसे शिष्य, ज्ञान और चारित्र के भागी नहीं बनते। ___ कुछ शिष्य, अपना दोष देखने वाले अहीर अहीरन के समान होते हैं। पूर्वोक्त गाँव में दूसरे अहीर दम्पत्ति रहते थे। वे भी नगर में घी बेचने के लिए गये। उनमें से एक अहीर के हाथ से भी घड़ा गिरकर फूट जाने पर अहीर कहने लगा-'अहो! मैं कितना असावधान हूँ कि घड़े को उचित रीति से नहीं दे सकता।' तब अहीरन ने कहा-'नहीं, नाथ! असावधानी तो मेरी है कि मैंने ही उचित रीति से घड़ा नहीं पकड़ा।' यों उन दोनों ने घड़ा फूटने में अपनी अपनी भूल स्वीकार की और गिरे हुए घी को जितना बचा सकते थे-बचाया और अपना काम प्रारंभ कर दिया। इससे उन्हें
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