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नन्दी सूत्र
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की अपेक्षा लें, तो प्रथम गुणस्थान वाले को भी उत्पन्न हो सकता है, परन्तु मनःपर्यायज्ञान तो नियम से मनुष्यगति वाले को ही हो सकता है तथा उसमें भी ऋद्धि प्राप्त अप्रमत्त संयत को ही हो सकता है, अन्य को नहीं। इस प्रकार अवधिज्ञान में तथा मनःपर्यवज्ञान में चार बोलों का अन्तर है, भिन्नता है।
से त्तं मणपज्जवणाणं॥१८॥ अर्थ - यह मनःपर्यवज्ञान प्रत्यक्ष है॥ १८॥
केवलज्ञान अब जिज्ञासु केवलज्ञान के स्वरूप को जानने के लिए पूछता है।
से किं तं केवलणाणं? केवलणाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-भवत्थकेवलणाणं च सिद्धकेवलणाणं च।
अर्थ - प्रश्न - वह केवलज्ञान क्या है ? उत्तर - केवलज्ञान के दो भेद हैं - १. भवस्थ केवलज्ञान तथा २. सिद्ध केवलज्ञान। :
विवेचन - १. 'केवल' का अर्थ हैं - सम्पूर्ण, अतएव जो सर्व द्रव्य, सर्व क्षेत्र, सर्व काल और सर्व भाव को जाने, वह 'केवलज्ञान' है।
२. अथवा 'केवल' का अर्थ है - शुद्ध। अतएव जो ज्ञानावरणीय कर्ममल के सर्वथा क्षय से आत्मा को उत्पन्न हो, उसे 'केवलज्ञान' कहते हैं।
३. अथवा 'केवल' का अर्थ है - असहाय। अतएव जिस ज्ञान के रहते अन्य कोई ज्ञान सहायक न रहे, उसे 'केवलज्ञान' कहते हैं। जिस प्रकार मणि पर लगे हुए मल की अधिकता न्यूनता और विचित्रता से मणि के प्रकाश में न्यूनता, अधिकता और विचित्रता आती है, पर मणि पर से लगा हुआ वह मल यदि दूर हो जाये, तो मणि के प्रकाश में रही हुई न्यूनता, अधिकता, विचित्रता आदि सभी मिटकर एक पूर्णता उत्पन्न हो जाती है और वही रहती है, उसी प्रकार आत्मा पर जब तक ज्ञानावरणीय कर्म मल रहता है और उसका न्यूनाधिक विचित्र क्षयोपशम होता है, तभी तक आत्मा में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव आदि न्यूनाधिक क्षयोपशम वाले क्षायोपशमिक विचित्र ज्ञान रहते हैं। परन्तु ज्यों ही आत्मा पर लगा हुआ. ज्ञानावरणीय कर्म-मल हट जाता है, त्यों ही आत्मा में से ये सभी विचित्र न्यूनाधिक क्षयोपशम वाले ज्ञान नष्ट होकर आत्मा में एक पूर्ण-केवल ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और वही रहता है।
४. अथवा 'केवल' का अर्थ है एक। अतएव जो ज्ञान, भेद रहित हो, वह 'केवलज्ञान' है।
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