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मति ज्ञान
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तीर्थंकरादि जो प्रकाशित करते हैं, वह श्रोताओं के लिए 'द्रव्यश्रुत' होता है, क्योंकि उसे सुनकर वे भावश्रुत ज्ञान को प्राप्त करते हैं। इति चू.लका द्वार समाप्त।
से त्तं केवलणाणं । से तं णोइंदियपच्चक्खं। से तं पच्चक्खणाणं॥ २३॥ अर्थ - यह केवलज्ञान है। यह अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान है।
सूत्रकार, ज्ञान के प्रत्यक्ष विभाग का स्वरूप वर्णन करने के पश्चात् अब परोक्ष विभाग का स्वरूप वर्णन करते हैं।
. मति ज्ञान से किं तं परोक्खणाणं? परोक्खणाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा - आभिणिबोहियणाणपरोक्खं च, सुयणाणपरोक्खं च।
अर्थ - प्रश्न - वह परोक्ष ज्ञान क्या है ? उत्तर - परोक्ष ज्ञान के दो भेद इस प्रकार हैं - १. आभिनिबोधिक ज्ञान और २. श्रुतज्ञान।
विवचेन - द्रव्य इन्द्रिय, द्रव्य मन, द्रव्य श्रुत श्रवण या द्रव्य श्रुत पठन आदि की सहायता से रूपी या अरूपी, द्रव्य गुण या पर्याय विशेष को जानना-'परोक्ष ज्ञान' है। .. सर्वप्रथम सूत्रकार 'इन दोनों का क्षयोपशम एक साथ होता है', यह बताते हैं।
जत्थ आभिणिबोहियणाणं तत्थ सुयणाणं, जत्थ सुयणाणं तत्थाभिणिबोहियणाणं, दोऽवि एयाइं अण्णमण्णमणुगयाइं, तहवि पुण इत्थ आयरिया णाणत्तं पण्णवयंति, अभिणिबुज्झइत्ति आभिणिबोहियणाणं, सुणेइत्ति सुयं, मइपुव्वं जेण सुयं, ण मई सुयपुब्विया॥२४॥ __ अर्थ - जहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान होता है, वहाँ श्रुत ज्ञान होता है और जहाँ श्रुतज्ञान होता है, वहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान होता है। ये दोनों ज्ञान अन्योन्य अनुगत हैं, तथापि आचार्य इन दोनों में नानात्व (भेद) बतलाते हैं।
जिससे 'आभिनिबोधिक' हो, वह आत्मा का ज्ञानोपयोग परिणाम-'आभिनिबोधिक ज्ञान' है तथा जिससे 'सुना जाये' वह आत्मा का ज्ञान उपयोग परिणाम - 'श्रुत ज्ञान' है। .
__ श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, पर मति, श्रुतपूर्वक नहीं होती, इस कारण मति और श्रुत दोनों भिन्न-भिन्न हैं।
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