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नन्दी सूत्र
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अच्छी आय हुई। संध्याकाल वे दोनों अन्य अहीर दंपत्तियों के साथ सकुशल अपने घर लौट गये और सुखी हुए।
ऐसे ही कुछ शिष्य होते हैं जो अपनी अपनी भूल स्वीकार करते हैं या आचार्य श्री के द्वारा भूल होने पर भी विनय का पालन करते हैं; जैसे-आचार्यश्री कहे कि 'शिष्य! उस समय. मैंने अनुपयोग से ऐसी व्याख्या कर दी थी, परन्तु अब तुम ऐसा ध्यान रखना' तो वे कहते हैं कि-'आप भगवंत ने तो ठीक ही कहा होगा. परन्त मति-दोष से मेरी ही भल हई होगी।' अथवा आचार्यश्री कभी क्रोध के उदय से शिष्य में भूल न होते हुए भी भूल बतावें कि-'तुम्हें ऐसा नहीं, पर ऐसा कहना चाहिए, तो वे आचार्य के पूर्व वाक्य-अंश को न पकड़ कर पिछले वाक्यांश को ही ग्रहण करके कहते हैं कि-'हाँ भगवन् ! ऐसा ही कहना चाहिए। मैं भविष्य में ऐसा ही कहने का उपयोग रखंगा।' ऐसे विनीत शिष्य ज्ञानदान के भाजन हैं। ये ही श्रुत-समुद्र के पारगामी बन सकते हैं और चारित्र के वास्तविक धनी बन मोक्ष पा सकते हैं।
जिज्ञासु इन दृष्टांतों पर गहरा विचार करें और अपनी पात्रता एवं अपात्रता का निर्णय करें। यदि अपात्रता है, तो उसे दूर करें या पात्रता में न्यूनता है, तो न्यूनता को दूर करे व पूर्ण पात्र बनकर ज्ञान के पूर्ण भागी बनें। .
जिनकी अपात्रता दूर हो सकती है, उसे दूर करने का आचार्यश्री प्रयास करते हैं। यदि पात्रता में कमी होती है, तो उसे दूर करने का प्रयास करते हैं और पात्रतानुसार ज्ञान देते हैं।
एक-एक शिष्य की अपेक्षा, योग्य-अयोग्य शिष्य विभाग प्ररूपणा समाप्त हुई। अब शिष्य समूह-श्रोतासमूह की अपेक्षा योग्य-अयोग्य की प्ररूपणा आरंभ की जाती है
परिषद् लक्षण प्रथम सूत्रकार सामान्यतः परिषद् के तीन प्रकार बताते हैंसा समासओ तिविहा पण्णत्ता तं जहा-१. जाणिया २. अजाणिया ३. दुब्वियड्डा।
वह (परिषद्) संक्षेप से तीन प्रकार की कही गई है। यथा-१. ज्ञायिका परिषद् - जिनमत, परमत और गुण-दोष की जानकार परिषद्। २. अज्ञायिका परिषद् = जिनमत, परमत और गुणदोष की अनजान परिषद्। ३. दुर्विदग्ध परिषद् = पण्डितमन्य परिषद्। जिस प्रकार कोई रोटी आधी कच्ची और आधी जली होती है तो अखाद्य होती है, उसी प्रकार जिनमें कुछ तो ज्ञान की कमी होती है और कुछ विकृत ज्ञान होता है, तिस पर भी जो अपने आपको पूरा पण्डित माने फिरते हैं, उन्हें 'दुर्विदग्ध'-पण्डितमन्य कहते हैं। .
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