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नन्दी सूत्र
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और वह सर्दी से पीड़ा पाती रही। दूसरे दिन, दूसरा ब्राह्मण उस गाय को अपने घर ले गया और उसने भी पहले ब्राह्मण के समान दुष्ट विचार से गाय का दूध दुह लिया, पर चारा- पानी आदि नहीं दिया। शेष दोनों ब्राह्मण भी ऐसे ही निकले। इस प्रकार उन चारों स्वार्थी, निर्दय ब्राह्मणों के द्वारा अपना स्वार्थ साधने और दूसरों की चिन्ता नहीं करने की दुर्वृत्ति से वह गाय बिचारी भूख प्यास सें क्षीणकाय होती हुई मर गई और उन ब्राह्मणों को गाय के दूध से वंचित होना पड़ा। गाय के मरने से गो-हत्या का पाप लगा। गाँव के लोगों में उनकी बड़ी तीव्र निन्दा हुई - "अरे! ये वेदपाठी ब्राह्मण हैं या निर्दय चाण्डाल ?" उनका कथा वांचने का व्यवसाय भी उठ गया, भिक्षा और दक्षिणा मिलनी भी बन्द हो गई । तब वे उस गाँव को छोड़ कर दूसरे गाँव चले गये, पर वहाँ भी उनकी अपयश कथा पहुँच चुकी थी, अतएव वहाँ और अन्यत्र कहीं भी उन्हें शरण प्राप्त नहीं हुई।
ऐसे ही कुछ शिष्यों की कहानी है - एक बहुश्रुत बहुआगम के ज्ञाता सहनशील शांत आचार्य थे। उनके पास उनके निजी शिष्य भी बहुत थे और उनकी ज्ञानादि गुणों की गरिमा से विविध अन्य गच्छ के कई प्रातीच्छक संत भी उनकी सेवा में जाकर वाचना लेते थे । परन्तु पढ़ने के पहले और पीछे गोचरी आदि वैयावृत्य का अवसर आता, तो निजी शिष्य सोचते कि - "आचार्य केवल हमें ही व्याख्यान नहीं सुनाते, पर प्रातीच्छकों को भी सुनाते हैं । अतएव वे ही आचार्य की वैयावृत्य करेंगे, हम आचार्यश्री की वैयावृत्य क्यों करें ?" प्रातीच्छक भी सोचते "हम तो पराये गच्छ के हैं और कुछ समय के लिए आये हुए हैं तथा हमें तो इनसे अल्प समय का लाभ है। अतः हम इनकी वैयावृत्य क्यों करें ? इनकी वैयावृत्य इनके शिष्य ही कर लेंगे, क्योंकि जीवन भर लाभ तो वे ही लेंगे" इस प्रकार सोच कर दोनों ही आचार्य की सेवा नहीं करते थे।
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इस प्रकार उन दोनों के चिन्तन के बीच आचार्यश्री ने वैयावृत्य के अभाव में चला वहाँ तक चलाया पर धीरे धीरे अशक्त एवं ग्लान हो गए। इससे दोनों को ही सूत्रार्थ प्राप्ति में हानि हुई । आचार्यश्री वैयावृत्य न करने से उन्हें जो अशक्तता और ग्लानता आई, उसका पाप लगा। संघ को जानकारी हुई तो संघ में भी अवर्णवाद हुआ। उस गण के दूसरे वाचक आचार्य ने भी उन्हें ज्ञानदान नहीं दिया। वहाँ से अन्य गणों में जाने पर भी उन्हें अपयश कथा के कारण श्रुतज्ञान नहीं दिया गया, जिससे वे अगीतार्थ ही रह गये तथा भवांतर में वे उच्च गति के अधिकारी न बन सके। ऐसे वैयावृत्य न करने वाले श्रोता, ज्ञान के अपात्र हैं।
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इसके विपरीत कुछ श्रोता, गाय की सेवा करने वाले ब्राह्मणों की भांति गुरु की वैयावृत्य करने वाले होते हैं।
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पूर्वोक्त गाँव में अन्य चार ब्राह्मण रहते थे । वे भी वेदपाठी थे। उन्हें भी किसी कुटुम्बी ने पर्व के दिन उनसे कथा करवा कर दक्षिणा में अन्य वस्तुओं के साथ एक गाय भी दी।
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