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नन्दी सूत्र
इन दृष्टांतों की संक्षिप्त विवेचना इस प्रकार हैं -
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१. मुद्गशैल का दृष्टांत
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(१) मुद्गशैल और घन का दृष्टांत -
असत् कल्पना के अनुसार एक वन था । वहाँ मुद्गशैल ( मगशैलिया) नामक पत्थर रहता था। वह मूँग जितने प्रमाण वाला था। उधर आकाश में पुष्करावर्त नामक महामेघ रहता था। वह जम्बूद्वीप जितने प्रमाण वाला था ।
एक समय की बात है - कलहप्रिय नारदजी, इन दोनों में कलह कराने की भावना से पहले मुद्गशैल के पास पहुँचे । मुद्गशैल ने उनका बहुत आदर सत्कार किया और कोई सुनने योग्य बात सुनाने के लिए कहा। तब नारदजी ने उससे कहा 'हे मुद्गशैल! किसी अवसर की बात हैमहापुरुषों की एक सभा जुड़ी थी। वहाँ मैं भी पहुँच गया था । उस समय वहाँ पुष्करावर्त महामेघ भी आया हुआ था । उसे देखकर मुझे तुम्हारे गुण स्मृति में आ गये। मैंने सभा में तुम्हारे गुणों का वर्णन करते हुए कहा - 'मुद्गशैल पत्थर, वज्र से भी अधिक कठोर है। उस पर यदि कितना भी पानी पड़ जाय, तो भी वह कभी भेदा नहीं जा सकता।' परन्तु तुम्हारा यह गुण वर्णन पुष्करावर्त मेघ, अणुमात्र भी सहन नहीं कर सका। उसने सभा में उठकर सबके सामने मुझे कहा- " नारदजी ! ये झूठे प्रशंसा के वचन रहने दीजिये । जो बड़े-बड़े पर्वत होते हैं, जिनके सहस्रों शिखर होते हैं, जो आकाश का चुम्बन करते हैं, जो क्षेत्र की मर्यादा करते हैं, ऐसे पर्वत भी, जब मैं बरसता हूँ, तो वे भिद कर सैकड़ों खण्ड हो जाते हैं, तो उस बेचारे मुद्गशैल के क्या कहने ? वह तो मेरी एक धारा भी सहन नहीं कर सकता।"
नारद के द्वारा पुष्करावर्त के इन वचनों को सुनते ही मुद्गशैल क्रोधाग्नि से भड़क उठा। उसने अहंकार पूर्वक कहा - "नारदजी ! पुष्करावर्त के परोक्ष में अधिक कहने से क्या लाभ है ? सुनिये ! मैं एक ही बात कहता हूँ कि 'वह दुरात्मा एक धार से तो क्या ? परन्तु सात दिन-रात बरस करके भी यदि तिल के तुष का जो सहस्रवाँ भाग होता है, उतना ही मुझे भेद दे, तो मैं अपना मुद्गशैल नाम ही छोड़ दूँ ।"
तब नारदजी इन वचनों को मस्तिष्क में जमा कर कलह कराने के लिए पुष्करावर्त मेघ के पास पहुँचे और उसके सामने उन्होंने मुद्गलशैल की कही हुई बात को बहुत बढ़ा चढ़ाकर रखी । उन वचनों को सुनकर पुष्करावर्त को अत्यन्त क्रोध आया और वह इस प्रकार कठोर वचन कहने लगा " हा ! दुष्ट ! तू स्वयं अपने आपकी शक्ति नहीं जानता, उल्टा मुझ पर ही आक्षेप लगाता है ? अस्तु, अब मैं तेरे वचन का फल बताता हूँ ।"
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