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६ | नानार्थोदयसागर कोष : हिन्दी टीका सहित-अनंग शब्द
वासुको शेषनागे च सिन्दुवारतरौ पुमान् ।
अनन्तमभ्रके व्योम्नि निस्सीमे त्वभिधेयवत् ॥२२॥ हिन्दी टीका--न अंग यस्य स अनंगः। इस व्युत्पत्ति से जिसका अंग आकार नहीं हो उसको अनंग कहते हैं। अनंग शब्द गगन (आकाश) और चित्त (मन) अर्थ में नपुंसक माना जाता है। किन्तु कामदेव (मदन) अर्थ में पुल्लिग है, इस प्रकार अनंग शब्द के तीन अर्थ समझना चाहिए। अनन्त शब्द पुल्लिग है और उसके छः अर्थ होते हैं-१. बलदेव (बलराम), २. चतुर्दश जिन (चौदहवाँ तीर्थकर), ३. अच्युत (विष्णु), ४. वासुकि (सर्प विशेष), ५. शेषनाग (सर्प विशेष) और ६. सिन्दुवार तरु (निर्गुन्डी का वृक्ष) । और अभ्रक (मेघ) और व्योम (आकाश) इन दो अर्थों में अनन्त शब्द नपुंसक माना जाता है किन्तु निस्सीम (सीमा रहित) अर्थ में तो अनन्त शब्द अभिधेयवत् (वाच्यलिंग-विशेष्यनिघ्न होने से) तीनों लिंग माना जाता है। इस प्रकार अनंग शब्द के तीन और अनात शब्द के तोह अर्थ माने जाते हैं। मूल : अनन्ताऽग्निशिखा वृक्ष-गुडूची-पिप्पलीषु च ।
पार्वती-भूमि-दुर्वासु यवासाऽनन्तमूलयोः ॥२३।। दुरालभाऽऽमलक्योश्च हरीतक्यामपि स्मृता ।
अनयो व्यसने दैवेऽमंगले ना विपद्यपि ॥२४॥ हिन्दी टीका-स्त्रीलिंग अनन्ता शब्द के बारह अर्थ होते हैं-१. अग्निशिखा (आग की ज्वाला), २. वृक्ष (वृक्ष विशेष-पिपर का वृक्ष), ३. गुडूची (गिलोय का झाड), ४. पिप्पली (पीपरि), ५. पार्वती (गौरी), ६. भूमि (पृथिवी), ७. दूर्वा (दूर्वादल-दूब), ८. यवास (वृक्ष विशेष), ६. अनन्तमूल (अनन्त नामक पिपर के झाड़ का मूल भाग), १०. दुरालभा (दुर्लभ), ११. आमलकी (धात्रीआमला) और १२. हरीतकी (हरें)। इसी प्रकार अनय शब्द पल्लिग है और उसके चार अर्थ होते हैं -१. व्यसन (दःख), २.देव (अदृष्ट भाग्य), ३. अमंगल (अकल्याण) और ४. विपत्ति भी व्यसन शब्द का अर्थ माना जाता है । इस तरह अनन्ता शब्द के १२ और अनय शब्द के चार अर्थ समझना चाहिए। मूल : अनलो वसुभेदेऽग्नौ पित्ते भल्लातके पुमान् ।
अनुबन्धः प्रकृत्यादौ बन्धे लेशे विनश्वरो ।।२५।। मुख्यानुगुशिशौ पश्चाद्बन्धने प्रकृतान्वये ।
दोषोत्पत्तौ तथाऽऽरम्भे सम्बन्धादिचतुष्टये ॥२६॥ हिन्दी टीका-अनल शब्द पुल्लिग है और उसके चार अर्थ होते हैं-१. वसुभेव (वसु विशेष), २. अग्नि (आग), ३. पित्त (धातु वैषम्य से विकार विशेष) और ४. भल्लातक (भाला बर्थी)। इसी प्रकार अनुबन्ध शब्द भी पुल्लिग है और उसके ११ अर्थ होते हैं-१. प्रकृत्यादि (प्रकृति-स्वामी-अमात्य प्रभृति आठ), २. बन्ध (बन्धन), ३. लेश (अल्प), ४. विनश्वर (विनाश पाने वाला), ५. मुख्यानुगुशिशु (मुख्य के पीछे चलने वाला शिशु-बालक), ६. पश्चाबन्धन (पीछे बाँधना), ७. प्रकृतान्वय (प्रस्तुत का अन्वय) ८. दोषोत्पत्ति (दोष पैदा होना) तथा इसी तरह ६. आरम्भ (प्रारम्भ होना या करना) और १०. सम्बन्धादिचतुष्टय (सम्बन्ध-अधिकारी-प्रयोजन और विषय) इन सम्बन्धादि चारों को भी अनुबन्धचतुष्टय कहते हैं। इस तरह अनल शब्द के चार और अनुबन्ध शब्द के १० या ११ अर्थ समझना चाहिए। क्योंकि मुख्यानुगुशिशु यहाँ पर जब मुख्यानुगु और शिशु ऐसा पदच्छेद से दो अर्थ हो सकते हैं तब ११ अर्थ और जब समस्त एक ही शब्द मुख्यानुगुशिशु मानने पर १० अर्थ होते हैं।
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