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प्रथम अध्याय
है। इसके दो भेद हैं-१-तदाकार स्थापना और २-अतदाकार स्थापना। जिस पदार्थका जैसा आकार है उसमें उसी आकारवालेकी कल्पना करना तदाकार स्थापना है - जैसे पार्श्वनाथकी प्रतिमामें पार्श्वनाथकी कल्पना करना। और भिन्न आकारवाले पदार्थोमें किसी भिन्न आकारवालेकी कल्पना करना अतदाकार स्थापना है। जैसे शतरंजकी गोटोंमें बादशाह, वजीर वगैरहकी कल्पना करना।'
द्रव्यनिक्षेप- भूत भविष्यत् पर्यायकी मुख्यता लेकर र्वतमानमें कहना सो द्रव्यनिक्षेप है। जैसे पहले कभी पूजा करनेवाले पूरूषको वर्तमानमें पूजारी कहना और भविष्यत्में राजा होनेवाले राजपुत्रको राजा कहना।
भावनिक्षेप-केवल वर्तमान पर्यायकी मुख्यतासे अर्थात् जो पदार्थ जैसा है उसको उसी रूपकहना भावनिक्षेप है। जैसे-काष्ठको काष्ठ अवस्थामें काष्ठ, आग होने पर आग और कोयला हो जानेपर कोयला॥५॥ सम्यग्दर्शन आदि तथा तत्वोंके जाननेके उपाय
प्रमाणनयैरधिगमः ॥६॥
अर्थ- सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय और जीव आदि तत्वोंका ( अधिगमः ) ज्ञान ( प्रमाणनयैः) प्रमाण और नयोंसे ( भवति) होता हैं।
प्रमाण- जो पदार्थके सर्वदेशको ग्रहण करे उसे प्रमाण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-१-प्रत्यक्षप्रमाण और २-परोक्षप्रमाण । आत्मा जिस ज्ञानके द्वारा किसी बाह्य निमित्तकी सहायतासे विना ही पदार्थोको स्पष्ट जाने उसे प्रत्यक्षप्रमाण कहते हैं और इन्द्रिय तथा प्रकाश आदिकी सहायतासे पदार्थोको एक-देश जाने उसे परोक्ष प्रमाण कहते हैं।
नय- जो पदार्थके एकदेशको विषय करे-जाने उसे नय कहते हैं।
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3. नामनिक्षेप और स्थापनानिक्षेपमें अन्तर - नानिक्षेप में पूज्य अपूज्यका व्यवहार नहीं होता. परंतु स्थापनानिक्षेपों पृव्य अपत्यका व्यवहार होता है।
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