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नवम अध्याय
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अर्थ- शेषके ११ परिषह (क्षुधा, तुषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल) वेदनीय कर्मके उदयसे होते हैं॥१६॥
एकसाथ होनेवाले परिषहोंकी संख्याएकादयोभाज्यायुगपदेकस्मिन्नैकोनविंशतिः।१७।
___अर्थ-(युगपत् )एकसाथ( एकस्मिन् ) एक जीवमें (एकादयः) एकको आदि लेकर( आएकोनविंशतिः) उन्नीस परिषह तक ( भाज्याः) विभक्त करना चाहिये।
भावार्थ- एक जीवके एक कालमें अधिकसे अधिक १९ परिषह हो सकते हैं, क्योंकि शांत और उष्ण इन दो परिषहोंमेंसे एक कालमें एक ही होगा तथा शय्या, चर्या और निषद्या इन तीनोंमेंसे भी एक कालमें एक ही होगा। इस प्रकार ३ परिषह कम कर दिये गये है॥१७ ॥
पांच चारित्रसामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराय यथाख्यातमिति चारित्रम् ॥१८॥
अर्थ- सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात ये चारित्रके पांच भेद हैं।
सामायिक चारित्र- भेद रहित सम्पूर्ण पापोंके त्याग करनेको सामायिक कहते हैं।
छेदोपस्थापना- प्रमादके वशसे चारित्रमें कोई दोष लग जानेपर
1. यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि प्रज्ञा और अज्ञान भी एकसाथ नहीं होंगे इसलिये १ परिषह और कम करना चाहिये। पर वह प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही कालमें एक ही जीवके श्रृतज्ञानादिकी अपेक्षा प्रज्ञा और अवधिज्ञानादिककी अपेक्षा अज्ञान रह सकता है।
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