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शंका समाधान
[१८९ प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ही प्राप्त होता है। किन्तु जिसके २८ प्रकृतियोंकी सत्ता है वह वेदक कालके भीतर सर्वप्रथम वेदक सम्यक्त्वको ही प्राप्त होता है। हां, वेदक कालके व्यतीत हो जाने पर वह भी सर्वप्रथम प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ही प्राप्त होता है।
(५) जिसके आहारक द्विककी सत्ता है उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति सम्भव नहीं।
(६) कषायपाहुड़में एक नियम यह भी बतलाया है कि जिस अनादि मिथ्याद्दष्टिको सर्वप्रथम प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है वह उक्त सम्यक्त्वसे च्युत होकर नियमसे मिथ्यात्वमें ही जाता है, अन्यत्र नहीं। अन्यत्र जाना इसका इसके पश्चात् ही सम्भव है।
औपशमिक सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं- प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम। इनमेंसे प्रथमोपशमके प्राप्त करने में जिस योग्यताकी आवश्यक्ता है इसका उल्लेख ऊपर किया ही है। अब रहा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, सो इसकी प्राप्ति वेदक सम्यग्दृष्टिके सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानमें ही होती है यह जीव अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना करके दर्शन मोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी उपशमना करता है तब यह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है। आगमों में एक ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टिके भी अनन्तानुबंधी चारकी विसंयोजना हो सकती है। यह क्रिया चारों गतिका जीव करता है। किंतु यह सम्यग्दर्शन प्रथमोपशम सम्यक्त्वका ही अवान्तर भेदतुल्य है। उपर जिस द्वितीयोपशम सम्यक्वका उल्लेख किया है वह इससे भिन्न है।
लब्धिसारमें प्रथमोपमश सम्यक्त्व प्राप्त होनेके पहले पांच लब्धियां बतलाई है उनका स्वरुप निम्न प्रकार है
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