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शंका समाधान
[१८७ अर्थात् जिस गतिमें जो उच्च या नीच गोत्र सम्भव हैं। उसके रहते हुए औपशमिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जाती हैं। यह भवनिमित्तक दूसरी काललब्धि है। तीसरी काललब्धिका सम्बन्ध कर्मोकी स्थितिसे है। ऐसा नियम है कि जिसके कर्मोकी स्थिति अन्तः कोडाकोड़ी सागरसे अधिक होती है उसके प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति सम्भव नहीं। किन्तु जिसके बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मोकी स्थिति अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण प्राप्त होती है और सत्तामें स्थित कर्मोकी स्थिति संख्यात हजार सागर कम अन्त: कोडाकोड़ी सागर शेष रह जाती है वही प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है। चौथी काललब्धिका सम्बन्ध कर्मोके अनुभागसे है। जिसके अप्रशस्त कर्मोंका अनुभाग द्विस्थानगत है और प्रशस्त कर्मोका अनुभाग चतुःस्थानगत है और उसीके प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार प्रकृति या प्रदेशगत और भी विशेषताएं है जिन्हें लब्धिसार आदि ग्रन्थोंसे जान लेना चाहिए । उनमेंसे एक दो बातोंका यहाँ उल्लेख किये देते हैं । जिसके आहारक शरीर और आहारक आंगोपांगकी सत्ता होती है उसे प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता।
बात यह है कि तेरह उद्वेलना प्रकृतियोंमें इन दोनोंका भी समावेश है। यह मानी हुई बात है कि वेदक कालके भीतर प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं होती। किन्तु इन दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलनामें यदि पल्यका असंख्यातवां भाव काल लगता है तो भी वह वेदकालसे कम है। अतः सिद्ध हुआ है कि इन दोनों प्रकृतियोंकी सत्ता रहते हुए प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं होती। वेदक कालके विषयमें यह बतलाया है कि सम्यकत्वसे च्युत हुआ मिथ्याद्दष्टि जीव, एकेन्द्रिय पर्यायमें परिभ्रमण करता रहता है, वह संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायको प्राप्त करके प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनको
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