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शंका समाधान _ [४] शंका-मतिज्ञानके मति आदि नामान्तर है या प्रत्येक शब्दका जो अर्थ वह यहां लिया गया है ?
[४] समाधान-षट्खण्डागमके कर्मप्रकृति अनुयोगद्वारमें मतिज्ञानावरण कर्मके कथन करनेके पश्चात् एक सूत्र आया है जिसका भाव है कि 'अब आभिनिबोधिक ज्ञानकी अन्य प्ररुपणा करते है' इसका खुलासा करते हुये वीरसेनस्वामीने लिखा है कि अब आभिनिबोधिक ज्ञानके पर्यायवाची शब्दोकी प्ररुपण करते है। इससे ज्ञात होता है कि मति आदिक शब्द मतिज्ञानके पर्यायवाची नाम है। यहा जो प्रत्येक शब्दका अलग अलग व्युत्पत्यर्थ लेकर मतिसे वर्तमानज्ञान, स्मृतिसे स्मरणज्ञान, संज्ञाके प्रत्यभिज्ञान, चिन्तासे तर्कज्ञान और आभिनिबोधसे अनुमानज्ञान लिया जाता है यह ठीक नहीं। क्योंकि ऐसा माननेपर ये पर्यायवाची नाम नहीं रहते। सर्वार्थसिद्धिमें जो इन शब्दोंका 'मननं मतिः' इत्यादि रुपसे विग्रह किया है उसका प्रयोजन केवल शब्दसिद्धि मात्र है, उससे अलग अलग अर्थ लेना ठीक नहीं। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर इनका व्युत्पत्यर्थ अलग अलग है तो भी उनसे एक देवराज रुप अर्थका ही बोध होता है। उसी प्रकार प्रकृतिमें भी जानना चाहिये। समभिरुढ़ नय एक शब्दको एक ही अर्थमें स्वीकार करता है, इस द्दष्टि से यदि विचार करके मति आदि शब्दोंका अलग अलग अर्थ लिया जाता है तो भी कोई आपत्ति नहीं। किन्तु मतिज्ञानकी मर्यादाके अन्दर ही इन शब्दोका अर्थ घटित करना चाहिये। यहां इतना विशेष जानना कि आगम ग्रन्थोमें आभिनिबोधिक ज्ञान यह नाम मुख्यतासे आया है और उसके संज्ञा, स्मृति, मति और चिंता ये चार पर्यायवाची नाम आये हैं। वहां इन नामोंका क्रम वह है जो हमने उपर दिया है।
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