Book Title: Mokshshastra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Pannalal Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 266
________________ शंका समाधान [२२१ [३५] शंका-केवलीका अवर्णवाद क्या है ? - [३५] समाधान-जिसमें जो दोष न हो उसका उसमें कथन करना अर्वणवाद कहलाता हैं। केवलीके कवलाहार नहीं होता तब भी केवलीके कवलाहारका कथन करना केवलीका अर्वणवाद हैं। बात यह है कि जब यह जीव क्षपक श्रेणीपर चढ़कर बारहवें गुणस्थानमें प्रविष्ट होता है तब ध्यानरुप वह्निसे इसके शरीरकी शुद्धि हो जाती हैं। शरीरमें सब निगोदिया जीवोंका अभाव हो जाता हैं। तेरहवें गुणस्थानमें तो इसके प्रभावसे एक भी निगोदिया जीव नहीं रहता। इसके प्रवृत्तिका वह भाग समाप्त हो जाता जिससे शरीरमें मलका संचय होकर उसमें निगोदिया जीव पैदा होते है। सातिशय पुरुष विशेषको यदि छोड़ दिया जाय तो यह निश्चय है कि जो आहार पानीको ग्रहण करेगा उसके शरीरमें मलमूत्रका संचय अवश्य होगा और इससे उसके शरीरमें कृमि व निगोदिया जीवोंकी भी उत्पत्ति होगी चूंकि केवलीके शरीरमें इस प्रकारके जीवोंका निषेध किया है। इससे ज्ञात होता है कि केवलीके कवलाहार नहीं होता। इस संसारी जीवोंके शरीरमें त्रस और निगोदिया जीव भरे पड़े हैं। वे निरन्तर शरीरका शोषण कर रहे है जिससे शरीरमें उष्णता होकर आहार, पानी आदिकी आवश्यकता पड़ती है। पर केवलीके शरीरमें इस प्रकारकी उष्णताका कारण नहीं रहता। उनके शरीरका शोषण अब अन्य त्रस व निगोदिया जीवोंके कारण नहीं होता। अतः शरीरमें आन्तर उष्णता उत्पन्न होकर उनके शरीरका उपक्षय नहीं होता। और इसलिये प्रति समय उनके शरीरके जितने परमाणु निजीर्ण होते हैं उतने नवीन परमाणुओंका ग्रहण हो जानेसे कवलाहारके बिना भी उनके शरीरकी स्थिति बनी रहती हैं। जिस प्रकार कर्मवर्गणाओंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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