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परीषह हो
याचना और चारित्रमो
परीषह
शंका समाधान
[२२९ और अज्ञान परीषह होती है। दर्शनमोहनीयसे अदर्शन परीषह होती है। अन्तराय कर्मसे अलाभ परीषह होती है। चारित्रमोहनीयसे नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार पुरस्कार परीषह होती है। तथा शेष परीषह वेदनीयके होने पर होती है। इस प्रकार इन परीषहोंके निमित्त हैं तो भी इनका कार्य मोहनीयके सद्भावमें ही होता हैं, मोहनीयके अभावमें नहीं। इस बातको बतलानेके लिये सूत्रकारने बन्धके कारणोंमें परीषहका अलगसे निर्देश नहीं किया। और कारणके सद्भावकी अपेक्षा परीषहोंका सद्भाव बतलानेके लिए जहां तक उनके कारण पाये जाते हैं तहां तक उनका निर्देश किया। इस प्रकार सबसे बड़ी परीषह मोहनीयका उदय है।
[४७] शंका-भाषासमिति और सत्यधर्ममें क्या अन्तर है ?
[४७] समाधान-भाषासमितिमें प्रवृति करनेवाला मुनि, साधु और असाधुमें भाषा व्यवहार करता हुआ हित, मित, और प्रिय ही बोलता है यह तो भाषासमिति है। किन्तु सत्य धर्ममें इस प्रकार बोलनेका कोई नियम नहीं हैं। इसमें तो वे सब बातें समाविष्ट हैं जो दीक्षित और उनके भक्तोंके लिए ज्ञान और चारित्रका शिक्षण देते समय कही जाती है। भाषासमिति और सत्यधर्ममें यही अन्तर है।
[४८ ] शंका-जिनेन्द्रदेवमें ग्यारह परीषह बतलानेका क्या कारण है ?
[४८] समाधान-वेदनीयकर्म मोहनीय कर्मके बिना अपना काम करने में पंगु है। आठ कर्मो में वेदनीय कर्मका पाठ जो घातिया कर्मोके मध्यमें किया है, वह इसी प्रयोजनके दिखलानेके लिये किया है। चूंकि मोहनीय कर्मका समूल नाश दशवें गुणस्थानके अन्तमें हो जाता है इसलिए ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में तत्त्वतः कोई परीषह
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