Book Title: Mokshshastra
Author(s): Umaswati, Umaswami, Pannalal Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 253
________________ २०८] माक्षशास्त्र सटीक इस प्रकार अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण आकाशमें जितने प्रदेश सामने हैं उतनी बार वहीं वहीं उत्पन्न होकर मरा। तदनन्तर एक एक प्रदेश सरक कर वह उत्पन्न हुआ, और इस प्रकार लोकाकाशके सब प्रदेशोंको अपनी उत्पत्तिसे समाप्त किया। इस प्रकार यह सब मिलकर एक क्षेत्रपरिवर्तन कहलाता है। एक जीव प्रथम उत्सर्पिणीके प्रथम समयमें उत्पन्न हुआ और आयुके समाप्त होनेपर मर गया। पुनः दूसरी उत्सर्पिणीके दूसरे समयमें उत्पन्न हुआ और आयुके समाप्त होनेपर मर गया। पुनः तीसरी उत्सर्पिणीके तीसरे समयमें उत्पन्न हुआ और आयुके समाप्त होनेपर मर गया। इस प्रकार एक एक समय बढ़ाते हुए वह उत्सर्पिणीके सब समयोंमें उत्पन्न हुआ। तथा इसी प्रकार अवसर्पिणीके सब समयों में भी उत्पन्न कराना चाहिये। जो उत्पत्ति क्रम बतलाया है वही क्रम मरणका भी समझना चाहिये। अर्थात एक जीव प्रथम उत्सर्पिणीके प्रथम समयमें मरा, दूसरी उत्सर्पिणीके दूसरे समयमें मरा आदि। इस प्रकार यह सब मिलकर एक काल परिवर्तन कहलाता है। नरककी जघन्य आयु दस हजार वर्षकी है। इस आयुके साथ एक जीव नरकमें उत्पन्न हुआ। पुनः इसी आयुके साथ दूसरी बार नरकमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दस हजार वर्षके जितने समय हो उतनी बार पूर्वोक्त आयुके साथ ही नरकमें उत्पन्न होता रहा। तदनन्तर एक समय अधिक दस हजार वर्षकी आयुके साथ नरकमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार एक एक समय बढ़ाते हुए नरककी तेतीस सागर आयु समाप्त करना चाहिए। तिर्यंचगतिकी जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य है। देव गतिकी जघन्य आयु दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर है। किन्तु यहां इकतीस सागर तककी आयुका ग्रहण करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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