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शंका समाधान विशुद्ध परिणामवाला है उसीके वेदक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। कर्मोकी स्थिति इसके अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर होनी चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं हैं। अधिक भी हो सकती है जो प्रत्येक कर्मकी अपने अपने उत्कृष्ट स्थिति सत्तासे अन्तर्मुहूर्त कम तक हो सकती है। हां, सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके समय इसके बन्ध अन्तः कोडाकोड़ी सागरका ही होगा। सम्यग्दृष्टि में प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि या द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीवके सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय हो जानेपर वेदक सम्यक्त्व होता है। जैन शतक आदिमें क्षायोपशमिकके तीन और वेदकके चार इस प्रकार सात भेद लिखे हैं इनमेंसे वेदकके चार भेद सही हैं। तथा क्षायोपशमिकके तीन भेदोमेंसे अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना और दर्शनमोहनीय तीनके उपशमसे जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह औपशमिक ही है, जिसका उल्लेख औपशमिक सम्यक्त्वके प्रकरणमें कर आये हैं। अब रहे शेष दो भेद सो वे नहीं बनते, क्योंकि
औपशमिक सम्यग्दृष्टि क्षायिक सम्यक्त्वको नहीं उत्पन्न करता है ऐसा नियम है और इसके बीना ये भेद बन नहीं सकते। इसका विशेष खुलासा हम-सर्वार्थसिद्धि टीकामें करनेवाले है। विस्तारभयसे यहां नहीं लिखा।
(३) क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवके वेदक सम्यक्त्वका होना आवश्यक है। इसकी उत्पत्ति के वली और श्रुतकेवलीके पादमूलमें कर्मभूमिज मनुष्यके ही होती है। जिससे तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध करके उस भवमें क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं किया उसके अन्तिम भवमें अपने निमित्तसे भी क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती हुई देखी जाती है, इस प्रकार किस योग्यताके होने पर जीवके कौनसा सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है इसका विचार किया।
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