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नवम अध्याय
[१६३ अवधिज्ञान तथा चारण आदि ऋद्धियोंकी प्राप्ति नही हुई इसलिए व्रत धारण करना व्यर्थ है, इस प्रकार अश्रद्धानके भाव नही होना सो अदर्शन परिषहजय है।
नोट- उक्त बाईस परिषहोंको संक्लेशरहित भावोंसे जीत लेने पर संवर होता है।
किस गुणस्थान' में कितने परिषह होते है ? सूक्ष्मसांपरायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश॥१०॥
अर्थ- सूक्ष्मसाम्पराय नामक दशवें और छद्मस्थ वीतराग अर्थात् ग्यारहवें उपशांतमोह तथा बारहवें क्षीणमोह नामक गुणस्थानमें १४ परिषह होते है। उनके नाम इस प्रकार है। १ क्षुधा, २ तृषा, ३ शीत, ४ उष्ण, ५ दंशमशक , ६ चर्या, ७ शय्या, ८ वध, ९ अलाभ, १० रोग, ११ तृणस्पर्श, १२ मल, १३ प्रज्ञा और १४ अज्ञान ॥१०॥
एकादश जिने ॥११॥ अर्थ- संयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थानमें रहनेवाले जिनेन्द्र भगवानके ऊपर लिखे हुए १४ परिषहोंमेंसे अलाभ, प्रज्ञा और अज्ञानको छोड़कर शेष ११ परिषह होते है।
नोट- जिनेन्द्र भगवानके वेदनीय कर्मका उदय होनेसे उसके उदयसे होनेवाले ११ परिषह कहे गये है। यद्यपि मोहनीय कर्मका उदय न होनेसे भगवानको क्षुधादिककी वेदना नहीं होती तथापि इन परिषहोंका
1. गोह और योगके निमित्तसे होनेवाली आत्मपरिणामोंकी तरतमताको गुणस्थान कहते है। वे १४ होते है- १ मिथ्याद्दष्टि, २ सांसादन, ३ मिश्र, ४ असंयत सम्यग्दृष्टि, ५ देशविरत, ६ प्रमत्तसंयत. ७ अप्रमत्तसंयत, ८ अपूर्वकरण, ९ अनिवृत्तिकरण, १० सूक्ष्मसाम्पराय, ११ उपशांतमोह, १२ क्षीणमोह, १३ संयोगकेवली और १४ अयोगकेवली । 2. वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्मकी संगति पाकर ही दुःखका कारण होता है, स्वतन्त्र नहीं।
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