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नवम अध्याय
[१७३ अर्थ- प्रारम्भके पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क नामक दो शुक्लध्यान पूर्वज्ञानधारी श्रुतकेवलीके ही होते हैं। नोट- चकारसे श्रुतकेवलीके धर्मध्यान भी होता है।॥ ३७॥
परे केवलिनः ॥३८॥ अर्थ- अन्तके सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति ये दो शुक्लध्यान संयोगकेवली और अयोगकेवलीके ही होते हैं।' ॥३८॥
शुक्लाध्यानके चार भेदोंके नामपृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरत
क्रियानिवर्तीनि ॥३९॥
अर्थ- पृथक्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति ये शुक्लध्यानके चार भेद हैं॥३९॥
भावार्थ-जिसमें वितर्क और विचार दोनों हों उसे पृथक्त्ववितर्क विचार नामक शुक्लध्यान कहते हैं। और जो केवल वितर्कसे सहित हो उसे एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यान कहते हैं।
सूक्ष्मकाययोगके आलम्बनसे जो ध्यान होता है उसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान कहते हैं। जिसमें आत्मप्रदेशोंमें परिस्पन्द पैदा करनेवाली श्वासोच्छ्वास आदि समस्त क्रियाए निवृत हो जाती हैं-रुक जाती हैं उसे व्युपरतक्रियानिवर्ति नामक शुक्लध्यान कहते हैं॥३९॥ 1. पहला भेद सातिशय अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थानसे लेकर ग्यारवें गुणस्थान तक रहता है। इनसे मोहनीय कर्मका उपशम अथवा क्षय होता है। दूसरा भेद बारहवें गुणस्थानमें होता है। इससे शेष घातिया कर्मोका क्षय होकर केवलज्ञान प्राप्त होता है। तीसरा भेद तेरहवें गुणस्थानके अन्त समयमें होता है और चौथा भेद चौदहवें गुणस्थानमें होता है इससे उपान्त्य तथा अन्त समयमें क्रमसे ७२ और १३ प्रकृतियोंका क्षय होकर मोक्ष प्राप्त होता है।
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