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एक जीवके एकसाथ कितने ज्ञान हो सकते हैं ?एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ॥ ३० ॥
प्रथम अध्याय
अर्थ- ( एकस्मिन्) एक जीवमें ( युगपत् ) एकसाथ (एकादीनि ) एकको आदि लेकर ( आचतुर्भ्यः ) चार ज्ञानतक ( भाज्यानि ) विभक्त करनेके योग्य हैं अर्थात् हो सकते हैं।
भावार्थ- यदि एक ज्ञान हो तो केवलज्ञान होता है। दो हों तो मतिश्रुत होते हैं। तीन हों तो मति श्रुत अवधि अथवा मति श्रुत और मन:पर्यय होते हैं । यदि चार हों तो मति श्रुत अवधि और मन:पर्यय ज्ञान होते हैं। एकसाथ पांचो ज्ञान किसी भी जीवके नहीं होते। प्रारम्भके चार ज्ञान ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे होते हैं और अन्तका केवलज्ञान क्षयसे होता हैं ॥ ३० ॥
मति श्रुत और अवधिज्ञानमें मिथ्यापनमतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ ३१ ॥
अर्थ- (मतिश्रुतावधयः । ) मति श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान ( विपर्यय: च ) विपर्यय भी होते हैं । उपर कहे हुए पाँचों ज्ञान सम्यग्ज्ञान होते हैं परन्तु मति श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान भी होते हैं । इन्हें क्रमसे कुमति ज्ञान, कुश्रुत ज्ञान और कुअवधि ज्ञान (विभङ्गावधि) कहते हैं। '
नोट- इन तीन ज्ञानोंमें मिथ्यापन मिथ्यादर्शनके संसर्गसे होता है। जैसे मीठे दूधमें कडुवापन कडुवी तूम्बड़ीके संसर्गसे होता है ॥ ३१ ॥
प्रश्न- जिस प्रकार पदार्थोको सम्यग्द्दष्टि जानता है उसी प्रकार मिथ्याद्दष्टि भी जानता है, फिर सम्यग्द्दष्टिका ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मिथ्याद्दष्टिका ज्ञान मिथ्याज्ञान क्यों कहलाता है ?
1. ५ सम्यक् और ३ मिथ्या इस प्रकार सब मिलाकर ज्ञानोपयोगके ८ भेद होते हैं ।
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