________________
षष्ठ अध्याय
[ १७ योगके निमित्तसे आस्रवका भेदशुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य ॥३॥
अर्थ-शुभयोग पुण्यकर्मके आस्रवमें और अशुभ योग पापकर्मके आस्त्रवमें कारण है।
शुभयोग- शुभ परिणामोंसे रचे हुए योगको शुभयोग कहते हैं। जैसे-अरहन्त भक्ति करना, जीवोंकी रक्षा करना आदि।
अशुभ योग- अशुभ परिणामोसे रचे हुए योगको अशुभ योग कहते हैं। जैसे-जीवोंकी हिंसा करना, झूठ बोलना आदि।
पुण्य- जो आत्माको पवित्र करे उसे पुण्य कहते हैं।
पाप- जो आत्माको अच्छे कार्योसे बचावे-दूर करे उसे पाप कहते हैं॥३॥
स्वामीकी अपेक्षा आस्रवके भेदसकषायाकषाययोःसाम्परायिकेर्यापथयोः॥४॥
अर्थ- वह योग कषाय सहित जीवोंके साम्परायिक आस्त्रव और कषाय रहित जीवोंके ईर्यापथ आस्त्रवका कारण है।
कषाय- जो आत्माको कषै अर्थात् चारों गतियोंमें भटकाकर दुःख देवे उसे कषाय कहते हैं। जैसे-क्रोध, मान, माया, लोभ।।
___साम्परायिक आस्रव-जिस आस्रवका संसार ही प्रयोजन है उसे साम्परायिक आस्रव कहते हैं।
ईर्यापथ- स्थिति और अनुभाग रहित कर्मोके आस्रवको ईर्यापथ आस्रव कहते हैं।
____ नोट- ईर्यापथ आस्रव ११ वें से १३ वें गुणस्थान तकके जीवोंके होता है, और उसके पहले गुणस्थानोंमें साम्परायिक आस्रव होता है। १४ वें गुणस्थानमें आस्रवका सर्वथा अभाव हो जाता है ॥४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org