________________
अष्टम अध्याय
[ १४७ ४० - यश: कीर्ति - जिसके उदयसे संसार में जीवकी प्रशंसा हो
उसे यशःकीर्ति नामकर्म कहते हैं ।
४१ - अयशः कीर्ति- जिसके उदयसे जीवकी संसारमें निन्दा हो उसे अयशः कीर्ति नामकर्म कहते हैं ।
४२- तीर्थंकरत्व - अरहन्तपदके कारणभूत कर्मको तीर्थंकरत्व नामकर्म कहते हैं ।
गोत्रकर्मके भेदउच्चैर्नीचैश्च ॥ १२॥
अर्थ- उच्च गोत्र और नीच गोत्र ये दो भेद गोत्रकर्मके हैं। १ - उच्च गोत्र - जिसके उदयसे लोकमान्य कुलमें जन्म हो उसे उच्च गोत्रकर्म कहते हैं ॥ १२ ॥
२- नीच गोत्र - जिस कर्मके उदयसे लोकनिन्द्य कुलमें जन्म हो उसे नीच गोत्रकर्म कहते हैं ॥ १२ ॥
अन्तरायकर्म के भेददानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥ १३ ॥
अर्थ- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ये अन्तरायकर्म के ५ भेद हैं। जिसके उदयसे जीव, दानकी इच्छा रखता हुआ भी दान न कर सके उसे दानान्तराय कर्म कहते हैं। इस प्रकार अन्य भेदोंके भी लक्षण समझना चाहिए ॥ १३ ॥
स्थितिबन्धका वर्णन
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकी उत्कृष्ट स्थिति
आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपम कोटीकोट्य: परा स्थितिः ॥ १४ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org