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अष्टम अध्याय
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पाप प्रकृतियांअतोऽन्यत्पापम् ॥२६॥ अर्थ- इससे भिन्न अर्थात् असातावेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम और अशुभ गोत्र ये पापप्रकृतियां हैं ॥२६॥
इति श्रीमदुमास्वामिविरचिते मोक्षशास्त्रे अष्टमोऽध्यायः॥
1 घादी णीचमसाद, णिरयाउ णिरयतिरियदुग जादीसंठाणसंहदीणं चदुपणपणगं च वण्णचओ॥४३॥ उवघादमसग्गमणं, थावरदसयं च अप्पसत्था हु । बंधुदयं पडि भेदे अडणउदि सयं दुचदुरसीदिदरे ।। ४४ ।।
(कर्मकांड) अर्थ- घातिया कर्मोकी (५+९+ २८+५-४७) सैंतालीस नीचगौत्र, असातावेदनीय, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आदिको ४ जातियां, ५ संस्थान, ५ संहनन, वर्णादिक १०, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति तथा स्थावरका आदि लेकर १६ (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्ति, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयश:कीर्ति) इस प्रकार भेदविवक्षामें १०० प्रकृतियां और अभेद विवक्षामें ८४ प्रकृतियां पापरुप हैं। क्योंकि वर्णादिकके १६ भेद घटानेसे ८४ भेद रहते हैं। इनमें से सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यत्वप्रकृति इन दो का बन्ध नहीं होनेसे भेद-विवक्षामें १८ का बन्ध और १०० उदय होता है।
___ नोट- वर्णादि चार अथवा उनके २० भेद पुण्य और पाप दोनों रुप हैं, इसलिये वे दोनों ही भेदोंमें गिने जाते हैं।
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