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सप्तम अध्याय
[१२७ अर्थ- सचित्तनिक्षेप ( सचित्त पत्र आदिमें भोजनको रखकर देना, ) सचित्तापिधान (सचित्त पत्र आदिसे ढके हुए भोजनादिका दान करना), परव्यपदेश ( दूसरे दातारकी वस्तुको देना), मात्सर्य (अनादरपूर्वक देना अथवा दूसरे दातारसे ईर्षा करके देना), और कालातिक्रम (योग्य कालका उल्लंघन कर अकालमें देना), ये पाँच अतिथिसंविभाग व्रतके अतिचार हैं ॥३६॥
सल्लेखनाके अतिचारजीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबंधनिदानानि
अर्थ- जीविताशंसा( सल्लेखनाधारणकर जीनेकी इच्छा करना), मरणाशंसा ( वेदनासे व्याकुल होकर शीघ्र मरनेकी वाञ्छा करना), मित्रानुराग ( मित्रोंका स्मरण करना), सुखानुबंध ( पूर्वकालमें भोगे हुए सुखोंका स्मरण करना) और निदान ( आगामी कालमें विषयोंकी इच्छा करना), ये पाँच सल्लेखना व्रतके अतिचार हैं॥३७॥
नोट- उपर कहे हुए ७० अतिचारों का त्यागी ही निर्दोष व्रती कहलाता हैं।
दानका लक्षणअनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ३८॥
अर्थ- ( अनुग्रहार्थम् ) अपने और परके उपकारके लिए (स्वस्य) धनादिका ( अतिसर्गः) त्याग करना ( दानम् ) दान हैं।
नोट- दान देने में अपना उपकार तो यह है कि पुण्यका बन्ध होता है और परका उपकार यह है कि दान लेनेवालेके सम्यग्ज्ञान आदि गुणोंकी वृद्धि होती हैं।
दानमें विशेषताविधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ॥ ३९ ॥
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