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अष्टम अध्याय
[१४१ २-जाति- जिस कर्मके उदयसे जीव नरकादी गतियोंमें अव्यभिचाररुप समानतासे एकरुपताको प्राप्त होवे वह जाति नाम कर्म है। इसके पाँच भेद है-१-एकेन्द्रिय जाति, २-द्वीन्द्रिय जाति, ३-तीन्द्रिय जाति, ४-चातुरिन्द्रिय जाति और ५-पंचेन्द्रिय जाति। जिसके उदयसे जीव एकेन्द्रिय जातिमें पैदा हो उसे एकेन्द्रिय जाति नामकर्म कहते है। इसी प्रकार सब भेदोंका लक्षण जानना चाहिये।
३-शरीर- जिस कर्म उदयसे शरीरकी रचना हो उसे शरीर नामकर्म कहते है। इसके पाँच भेद है-१-औदारिक शरीर नामकर्म, २-वैक्रियिक शरीर नामकर्म, ३-आहारक शरीर नामकर्म, ४-तैजस शरीर नामकर्म और ५-कार्मण शरीर नामकर्म। जिसके उदयसे औदारिक शरीरकी रचना हो उसे औदारिक शरीर नामकर्म कहते है। इसी प्रकार सब भेदोंके लक्षण जानना चाहिए।
४-अङ्गोपाङ्ग- जिसके उदयसे अङ्ग-उपाङ्गो की रचना हो उसे अङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते है। इसके भेद है-१-औदारिक शरीरङ्गोपाङ्ग, २-वैक्रियिक शरीराङ्गोपाङ्ग और ३-आहारक शरीराङ्गोपाङ्ग। जिसके उदयसे औदारिक शरीरके अङ्ग और उपाङ्गोकी रचना हो उसे औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते है । इस प्रकार शेष दो भेदोंके लक्षण समझना चाहिये।
५-निर्माण- जिस कर्मके उदयसे अंगोपाँगोंका यथास्थान और यथाप्रमाण हो उसे निर्माण नाकर्म कहते हैं।
६-बन्धन नामकर्म- शरीर नामकर्मके उदयसे ग्रहण किये हुए पुद्गल स्कन्धोंका परस्पर सम्बन्ध जिस कर्मके उदयसे होता है उसे बन्धन
1.दो हाथ, दो पाँव, नितम्ब, पीठ. वक्षःस्थल और मस्तक ये ८ अंग है तथा अंगुलि आदि उपांग है। ‘णलया यहय तहा णियम्ब पुट्टो उरो य स्त्रीस्रो य। अट्टे ब दु अंगाई देहे सेमा उवंगाइ ॥' - कर्मकांड।
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